क्या ये अराजकता प्रशासन की समझ में नहीं आ रही?

स्कूलों का समय यथावत रखने को लेकर सावित्री स्कूल के बाद राजकीय गुलाबबाड़ी स्कूल की छात्राओं ने भी जिस प्रकार सड़कों पर आ कर प्रदर्शन किया है, उससे यह साफ नजर आने लगा है कि अपने हक और मांग की खातिर अराजक व अनियंत्रित तरीके की बीमारी जोर पकड़ रही है। इसके बावजूद प्रशासन का जो ढ़ीला रवैया है, उससे सवाल उठता है कि क्या पानी सिर के ऊपर से बहने लगेगा, तब जा कर वह चेतेगा?
जिस प्रकार छात्राएं लामबंद हो कर प्रदर्शन को उतारू हुईं, उससे इस बात का अंदेशा तो होता है कि चंद खुरापाती शिक्षक-शिक्षिकाओं के भड़काने से ही यह माहौल उत्पन्न हुआ है। दोनों स्कूलों में जिस तरह से हंगामा पैदा हुआ और फिर सड़कों पर पसर गया है, उसमें कम से कम छात्राओं के स्वप्रेरित आंदोलन करने की तो कत्तई संभावना नहीं है। और अभिभावकों के उकसाने की बात भी गले नहीं उतरती। भला कौन माता-पिता अपनी बेटियों को इस प्रकार के प्रदर्शन के लिए उकसाएगा? ऐसे में शक की सुई शिक्षकों-शिक्षिकाओं पर ही घूमती है। प्रशासन को भी इसी आशय की रिपोर्ट मिली है, इस कारण वह उनके खिलाफ कार्यवाही की बात कर रहा है।
अगर यह सच है कि हमारे गुरुजन इस प्रकार की हरकतें करवा रहे हैं, तो यह बेहद शर्मनाक है। ऐसा करके वे न केवल भावी पीढ़ी को उदंड बना रहे हैं, अपितु देश को अराजकता का पाठ पढ़ा रहे हैं। होना यह चाहिए था कि छात्र-छात्राओं की समस्या को शिक्षक अपने स्तर पर शिक्षा विभाग तक पहुंचाते और दबाव बनाते कि फिलहाल समय यथावत रखा जाए। इसकी बजाय बच्चों को भड़काना वाकई घटिया हरकत है। ऐसे खुरापाती शिक्षकों के खिलाफ तो कार्यवाही होनी ही चाहिए।
वस्तुत: लोकतंत्र में मांग रखना गलत नहीं है, मगर उसका जो तरीका अपनाया गया है, वह चिंता का कारण बनता है। स्कूली छात्राओं का कक्षाओं का बहिष्कार करना और बिना किसी संरक्षण के पांच किलोमीटर का सफर तय कर के कलेक्ट्रेट पहुंचने को संभव है प्रशासन ने हल्के में लिया हो, मगर यह किसी हादसे का सबब भी बन सकता था। उस वक्त जिम्मेवार कौन होता?
अपुन ने पहले ही लिख दिया था कि कहीं ये अराजकता का आगाज तो नहीं है? यह आशंका इस बात से पुष्ट होती है कि गुलाबबाड़ी स्कूल की छात्राओं ने यह तर्क दिया कि जब प्रदर्शन के बाद सावित्री स्कूल की छात्राओं के समय में परिवर्तन किया जा सकता है तो उनकी स्कूल के समय में परिवर्तन संभव क्यों नहीं है। यानि कि खुद की बला टालने की खातिर शिक्षा विभाग के अधिकारियों ने जो अस्थाई समाधान निकाला, वह अन्य बच्चों के लिए नजीर बन गया। अराजकता ऐसे ही पनपती है। वह छूत की बीमारी है। समय रहते इलाज न किया जाए तो दुखदायी हो जाती है। दुर्भाग्य से चंद तथाकथित बुद्धिजीवी, जिन्होंने पूरे देश को स्वर्ग बनाने का ठेका ले रखा है, वे सनक की हद तक इसे जायज ठहरा रहे हैं। उनके तर्कों में कितना कुतर्क है, इसे आमजन अच्छी प्रकार समझ रहे हैं, उसके लिए किसी तर्क की जरूरत नहीं है।
ताजा घटनाक्रम में यह बात तो सही लग रही है कि राज्य सरकार व शिक्षा विभाग ने अपने कलेंडर के मुताबिक स्कूलों का जो समय बदला है, वह दिन में पड़ रही गर्मी की वजह से कुछ कष्टप्रद है। फिलहाल समय न बदले जाने को लेकर कुछ शिक्षक संगठनों ने तो शुरू में ही मांग उठाई थी, मगर सरकार ने उसे नजरअंदाज कर दिया। अब जब कि एक के बाद दूसरी स्कूल की छात्राएं सड़क पर पर उतरी हैं, प्रशासन को हालात की गंभीरता को समझना होगा। मात्र शिक्षकों के खिलाफ सख्ती बरतने से हल नहीं निकलने वाला है। उसे सरकार से संपर्क साध कर तुरंत समाधान निकालना होगा।
-तेजवानी गिरधर

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