यूं उम्मीद पर चोट तो दीपक भाकर के साथ भी हुई है। सारस्वत टिकट के लिए गंभीर प्रयासरत तो थे, मगर उन्होंने इसका प्रचार नहीं किया, जबकि भाकर ने शोशेबाजी में कोई कसर बाकी नहीं रखी। उन्होंने अपने पोस्टर-बैनर चारों ओर इस प्रकार शाया कर दिए थे, मानो उनका टिकट पक्का हो गया है। अधिसंख्य पोस्टर उस किस्म के थे, जैसे अधिकृत प्रत्याशी के हुआ करते हैं। जयपुर-दिल्ली में उनकी पकड़ जरूर थी, मगर उनका सबसे बड़ा माइनस पॉइंट ये था कि वे जनता में सुपरिचित चेहरा नहीं थे। अपने आप को प्रोजेक्ट करने के लिए इसीलिए मशक्कत की, ताकि टिकट मिल जाने के बाद कोई ये न कहे कि दीपक भाकर कौन है? मगर हाईकमान ने सुपरिचित व अनुभवी के रूप में चौधरी पर हाथ रख दिया।
भाजपा ने जातीय समीकरण का पूरा ख्याल रखते हुए तकरीबन ढ़ाई लाख जाट मतदाताओं के दम पर चौधरी पर हाथ रख दिया है। हालांकि बीच में ऐसा माना जा रहा था कि अगर सारस्वत को टिकट देना संभव नहीं हुआ तो केन्द्रीय मंत्री सी. आर. चौधरी को यहां से उतारा जा सकता है, मगर ऐसा लगता है कि स्थानीयतावाद को ख्याल रखते हुए ही भागीरथ को मौका मिला है। भागीरथ को स्थानीय होने का तो लाभ मिलेगा ही, इसके अतिरिक्त वे जाट वोट बैंक का बड़ा हिस्सा भी झटक सकते हैं।
ज्ञातव्य है कि भागीरथ चौधरी पिछले विधानसभा चुनाव में किशनगढ़ सीट के सशक्त दावेदार थे, मगर उन्हें मौका नहीं दिया गया। बावजूद इसके उन्होंने बगावत नहीं की और भाजपा प्रत्याशी के पक्ष में जम कर काम किया। यही उनका प्लस पॉंइट बन गया। कदाचित ये भी हो सकता है कि दूरदृष्टि रखते हुए उन्हें लोकसभा चुनाव के लिए सुरक्षित रखा गया हो। उनके पक्ष में एक बात ये जाती है कि हालांकि वे जाट जाति से हैं, मगर वैश्य समुदाय से भी उनका मेलजोल है। ऐसे में पिछले उपचुनाव की तरह एंटी जाट फैक्टर काम करेगा, इसको लेकर मतभिन्नता है।
-तेजवानी गिरधर
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