एक थी नाले शाह की मजार…

शहर के चंद बुद्धिजीवियों को ही पता है कि अजमेर में एक स्थान नाले शाह की मजार के नाम से जाना जाता था। अब उसका कोई नामो-निशान नहीं है। दरअसल न तो नाले शाह नाम के कोई शख्स हुए और न ही वह किसी की मजार थी। वह एक ठीया था। क्लॉक टॉवर पुलिस थाने के मेन गेट से सटी बाहरी दीवार पर रोजाना रात सजने वाले मजमे को कुछ मसखरे नाले शाह की मजार कहा करते थे। दरअसल दीवार के सहारे पटे हुए एक नाले पर होने के कारण ये नाम पड़ा था। इस ठीये पर शहर की चौधर करने वाले जमा होते थे। बाखबर के साथ बेखबर चर्चाओं का मेला लगता था। अफवाहों की अबाबीलें घुसपैठ कर जातीं, तो कानाफूसियां भी अठखेलियां करती थीं। हंसी-ठिठोली, चुहलबाजी, तानाकशी व टीका-टिप्पणी के इस चाट भंडार पर शहर भर के चटोरे खिंचे चले आते थे। दुनियाभर की टेंशन और भौतिक युग की आपाधापी के बीच यह वह जगह थी, जहां आ कर जिंदगी रिलैक्स करती थी। इतना ही नहीं, वहां शहर की फिजां का तानाबाना सायास नहीं, अनायास बुना जाता था। यहां से निकली हवा शहर की आबोहवा में बिखर जाती थी।

डॉ. रमेश अग्रवाल
दैनिक भास्कर, अजमेर संस्करण के संपादक डॉ. रमेश अग्रवाल इस अनछुए से ठिये को अपने आलेख में बखूबी छू चुके हैं। उसकी सुर्खी थी- ठिये-ठिकाने, जहां जि़न्दगी मुस्कुराती है। चंद माह पहले अजयमेरू प्रेस क्लब मेें चाय पर चर्चा के दौरान भी उन्होंने अजमेर के इस खास ठिये का जिक्र करते हुए मौजूद पत्रकार साथियों को तकरीबन पंद्रह साल पीछे ले जा कर गहरी डुबकी लगवाई थी। अपने आलेख में डॉ. अग्रवाल ने इसे कुछ इस तरह बयां किया है:- अजमेर रेलवे स्टेशन के बाहर मुख्य सड़क पर ऐसी ही एक चौपाल बरसों तक लगा करती थी, जिसमें बैठने के लिए लोग अपने दुपहिया वाहनों का इस्तेमाल किया करते थे। कई बार यह रात्रि चौपाल भोर होने तक खिंच आती थी। अजमेर की इस चौपाल में बहुसंख्या भले ही शहर के पत्रकारों की रहा करती हो, मगर शिरकत बड़े-बड़े मंत्रियों व अफसरों से लेकर पंक्चर बनाने वालों तक की रहती थी।
असल में डॉ. अग्रवाल ही इस ठिये के सूत्रधार थे। तब वे नवज्योति में हुआ करते थे। उनके संपादन कार्य से निवृत्त के बाद यहां पहुंचने से पहले ही एक-एक करके ठियेबाज जुटना शुरू हो जाते थे। सबके नाम लेना तो नामुमकिन है। चंद शख्सियतों का जिक्र किए देते हैं:- स्वर्गीय श्री वीर कुमार, रणजीत मलिक, इंदुशेखर पंचोली, संतोष गुप्ता, नरेन्द्र भारद्वाज, ललित शर्मा, अतुल शर्मा, तिलोक आदि-आदि, जो कि रोजाना इस मजार पर दीया जलाने चले आते थे। डॉ. अग्रवाल के आने के बाद तो महफिल पूरी रंगत में आ जाती थी। इस मयखाने की मय का स्वाद चखने कई रिंद खिंचे चले आते थे। यहां दिनभर की सियासी हलचल के साथ अफसरशाही के किस्सों पर खुल कर चटकारे लिये जाते थे। समझा जा सकता है कि दूसरे दिन अखबारों में छपने वाली खबरों का तो जिक्र होता ही था, उन छुटपुट वारदातों पर भी कानाफूसी होती थी, जो ऑफ द रिकार्ड होने के कारण खबर की हिस्सा नहीं बन पाती थीं। अगर ये कहा जाए कि इस ठिये पर शहर का दिल धड़कता था तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। चूंकि यहां हर तबके के बुद्धिजीवी जमा होते थे, इस कारण खबरनवीसों को शहर की क्रिया-प्रतिक्रिया का भरपूर फीडबेक मिला करता था। जो बाद में अखबारों के जरिए शहर की दिशा-दशा तय करता था। जिन पंक्चर बनाने वाले का जिक्र आया है, उनका नाम है श्री सीताराम चौरसिया। कांग्रेस सेवादल के जाने-माने कार्यकर्ता। सेवादल के ही योगेन्द्र सेन इस मजार के पक्के खादिम थे। बाद में यह ठीया वरिष्ठ पत्रकार इंदुशेखर की पहल पर पैरामाउंट होटल के एक कमरे में शिफ्ट हो गया था। एक घर बनाऊंगा की तर्ज पर एक सा छोटा ठिया सामने ही रेलवे स्टेशन के गेट के पास कोने में चाय की दुकान पर भी खुला, जो दैनिक न्याय के पत्रकारों ने जमाया था। लगे हाथ ये बताना वाजिब रहेगा कि नाले शाह की मजार से भी पहले क्लॉक टॉवर के सामने मौजूदा इंडिया पान हाउस के पास चबूतरे पर दैनिक नवज्योति के तत्कालीन क्राइम रिपोर्टर स्वर्गीय श्री जवाहर सिंह चौधरी देर रात के धूनी रमाया करते थे।

-तेजवानी गिरधर
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