अजमेर ब्रॉस बैंड कंपनियों के लिए प्रसिद्ध है। इन दिनों स्मार्ट अजमेर बैंड कंपनी एक्टिव है। खूब हल्ला मचा रखा है। सेवन वंडर्स के निधन पर मातमी धुन बजा रही है। किसी को मातमी धुन सुनाई देती है तो किसी का जश्न सा आभार करवा रही है। कोई ढोल बजा रहा है तो कोई पींपाडी, कोई नक्कार से हाहाकार मचा रहा है तो कोई तूती से काम चला रहा है। कंपिटीशन छिडा हुआ है। हर कोई दूसरे से आगे निकलना चाहता है। पुष्कर की कपडा फाड होली जैसी प्रतिस्पर्द्धा है। परस्पर विरोधी तर्क इतने उलझे हैं कि पता ही नहीं चल रहा कि सच क्या है और झूठ क्या? आंकडों के मायाजाल ने आम अजमेरी को कन्फ्यूज करके रख दिया है। लानत अफसरों पर भेज रहे हैं और भिडे हुए आपस में हैं। अरे भाई, जब सेवन वडर्स के लिए अफसरशाही को दोषी ही मानते हो, कि उन्होंने आपकी एक नहीं चलने दी तो आपस में काहे को एक दूसरे को भेंटी मार रहे हो। इससे क्या हासिल हो जाएगा? यह देख अफसर मन ही मन खुश हैं। वे यही तो चाहते हैं। तभी तो कहते हैं कि दो बंदरों की लडाई में बिल्ली माल खाती रहती है। यही अजमेर की फितरत है। अजमेर का इतिहास है। हम कभी नहीं सुधरेंगे।
सवाल ये है कि अजमेर इस काले अध्याय का असली जिम्मेदार कौन है? केवल अफसरों को गाली देना कितना जायज है? अफसर तो लालफीताशाही के आदी हैं, मगर क्या आपकी सामूहिक जिम्मेदारी नहीं बनती थी? क्या केवल मुट्ठी तान लेना ही काफी था? कोरी बयानों में वीरता नाकाफी थी। क्या कभी मतभेद भुला कर कोई आंदोलन किया? या याचक की तरह मांग मात्र करके इतिश्री कर ली। तभी तो कहते हैं कि हक मांगने से नहीं, छीनने से मिलता है। अगर आपकी आवाज नहीं सुनी गई तो यह आपके जननायक होने पर संदेह पैदा करता है। गर सच में चाहते हो कि दोषियों को सजा होनी चाहिए तो पौरुष जगाना होगा। रहा सवाल मूकदर्शक अजमेरी लालों का, तो उसे समझ ही नहीं आता कि कब सियापा किया जाए और कब जश्न मनाया जाए। बेचारे मीडिया ने अपनी ड्यूटी बखूबी निभाई, मगर उसकी तासीर पहले सी नहीं रही। शासन प्रशासन के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। एक कान से सुनता है, दूसरे कान से निकाल देता है।
