राजनीति के मैदान को सर्कस में तब्दील कर दिया ‘आप’ ने

arvind kejariwal 5-सिद्धार्थ शंकर गौतम- आम आदमी पार्टी की दिल्ली विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित जीत ने राजनीति में प्रयोग और शुचिता की बहस को बढ़ा दिया है। ‘आप’ की जीत से सवाल तो उठता ही है कि वे क्या कारण रहे जिनसे कांग्रेस-भाजपा जैसे स्थापित राजनीतिक दलों से आम आदमी का मोह भंग हुआ? मोदी-राहुल जैसे स्थापित और आकर्षक राजनीतिज्ञों की राजनीति और अनुमान भी ‘आप’ की जीत को नहीं रोक सके? क्या ‘आप’ को प्रचण्ड वोट देकर दिल्ली के दिलवालों ने यह जताने की कोशिश की है कि यदि उन्हें राजनीति में सशक्त विकल्प मिला तो वे स्थापित राजनीतिक दलों से परहेज करते हुये उसे अपना सकते हैं? इसका जवाब मिलना हाल फिलहाल तो कठिन ही है। हाँ इतना अवश्य कहा जा सकता है कि देश में व्याप्त राजनीतिक अस्थिरता का फायदा ‘आप’ को मिला है। यह कांग्रेस या भाजपा से मोहभंग का मामला तो बिलकुल भी नहीं है।
‘आप’ को लेकर यह चर्चा बलवती है कि जितनी तेजी से इसका उदय हुआ है; उतनी ही तेजी से इसका सितारा भी डूबेगा। ऐसी चर्चाओं का वाजिब कारण भी है। चूँकि राजनीति अनिश्चितताओं से भरी है और ‘आप’ जैसे प्रयोग देश में पूर्व में हुये हैं किन्तु उनकी उम्र लम्बी नहीं रही है। गोया कि प्रयोगों से आम आदमी भी जल्द ही उकता गया है। 1977 में आपातकाल के बाद इंदिरा कांग्रेस को नेस्तनाबूद कर जनता पार्टी ने प्रचण्ड बहुमत से सरकार तो बना ली किन्तु सत्ता के शीर्ष का सुख उसके नेताओं को अधिक पचा नहीं और जनता ने पुनः इंदिरा कांग्रेस का वरण किया; यह जानते हुये भी कि उन्हें एक बार फिर वही सब जिल्लत झेलनी पड़ सकती है जिसने बचने के लिये उन्होंने जनता पार्टी को जिताया था। फिर एक मौका और आया 1989 में किन्तु उसका गुबार भी डेढ़ साल में निकल गया। दरअसल इस प्रसंग का यहाँ ज़िक्र करना इसलिये भी अवश्यम्भावी हो जाता है क्योंकि ‘आप’ के संस्थापक अरविन्द केजरीवाल वही गलतियाँ दोहरा रहे हैं जिन्हें आम जनता अक्सर नकार चुकी है।
दलित राजनीति के बड़े चेहरे रामविलास पासवान ने भी जनादेश की इज्जत न कर खुद की सम्भावनाओं के द्वार बन्द किये थे और अब एक बार फिर केजरीवाल इतिहास दोहरा कर उसका हिस्सा बनने की ऒर अग्रसर हैं। दिल्ली ने जनता ने ‘आप’ के लोकलुभावन वादों और दावों को एक मौका दिया और केजरीवाल हैं कि जनता के विश्वास को धूमिल करने में लगे हैं। विधानसभा की 28 सीटें जीतने और कांग्रेस द्वारा समर्थन देने की पहल को जिस तरह वे अस्वीकार कर रहे हैं, वह जनता के साथ धोखा ही है। केजरीवाल के तर्क-वितर्क ऐसे हैं मानों कोई बच्चा अपनी माँ से रूठा हो और माँ उसे मनाने की कोशिश कर रही हो। जनाब यह राजनीति है। अर्थात् राज करने की नीति। इसमें साम, दाम, दंड, भेद सभी की खुली छूट है और यदि आपको लगता है कि आप भावनात्मक और लच्छेदार भाषा से जनता को खुद की ऒर कर लेंगे तो माफ़ कीजिएगा, यह आपकी भूल होगी। जैसे भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता, उसी तरह राजनीति के मैदान में जनता का भी कोई ईमान नहीं होता। जिस ईमानदारी की केजरीवाल कसमें खाते हैं उनकी प्रामाणिकता पर कई दफे सवालिया निशान लग चुके हैं। सरकारी नौकरी से राजनीति में आए जयप्रकाश नारायण और उनकी पार्टी लोकसत्ता की ईमानदारी पर किसे शक होगा किन्तु मीडिया से लेकर तमाम माध्यमों में उसकी चर्चा ही नहीं होती। चूँकि ‘आप’ ने राजनीति के मैदान को सर्कस में तब्दील कर दिया है लिहाजा उसकी चर्चा भी है और प्रसिद्धि भी। पर जैसे सर्कस के करतबों की उम्र होती है उसी तरह ‘आप’ भी अपनी जवानी देख पाये, इसमें संशय है।
‘आप’ को दिल्ली में सरकार बनाने के जितने मौके मिल रहे हैं वह विरले ही होता है किन्तु केजरीवाल की ज़िद और सनक दिल्ली को एक और चुनाव की ऒर धकेल रही है। ‘जनता की पार्टी, जनता के लिये’ का तमगा लिये ‘आप’ जिस तरह जनता की राय का सर्वेक्षण करवा रही है, क्या वह मज़ाक नहीं है? आखिर जनता की राय में सही और गलत का निर्णय कौन करेगा? ‘आप’ को जितने भी मत सरकार गठन की दिशा में आगे बढ़ाने के लिये मिलेंगे क्या सभी सही होंगे? मत सर्वेक्षण का पैमाना किस तरह निर्धारित होगा? दरअसल चुनाव पूर्व केजरीवाल ने जिस ‘आप’ के मार्फ़त दिल्ली के प्रत्येक वासी को रोज़ाना 700 लीटर पानी और आधे बिजली के बिल देने का जो वादा किया था, उसे यथार्थ के धरातल पर उतारना असम्भव नहीं तो कठिन तो है ही। फिर राजनीतिक अनुभवहीनता भी घाघ राजनीतिज्ञों के बीच जाने से ‘आप’ का रास्ता रोक रही है। आखिर राजनीति भी काजल की कोठरी की तरह है। इसमें जितना भी सयाना जाए; उसके दामन पर कालिख तो लग ही जाती है।

सिद्धार्थ शंकर गौतम
सिद्धार्थ शंकर गौतम

यदि ‘आप’ और केजरीवाल का यही डर है तो राजनीति में बदलाव की जिस शुरुआत का वे नारा देते हैं, उसे तत्काल बन्द कर देना चाहिए। हालाँकि यह कहने में गुरेज नहीं होना चाहिए कि दिल्ली में ‘आप’ की जीत ने तमाम स्थापित राजनीतिक दलों को आईना तो दिखा ही दिया है जो जनता को हाँकने की नीयत से देखते थे। साथ ही उन्हें नए सिरे से सोचने पर भी मजबूर किया है। पर ‘आप’ के ताजा पैंतरों से सबसे ज़यादा ख़ुशी भी उन्हें ही हो रही होगी। और हो भी क्यों न; जनता कई बार राजनीतिज्ञों द्वारा छली गयी है तो एक बार और सही। यदि ‘आप’ दिल्ली में सरकार बना लेती है तो उसे राजनीति के दलदल में उतरकर जनता की अपेक्षाओं का बोझ उठाना होगा। ‘आप’ इसमें सफल होती है तो भारतीय राजनीति का चेहरा बदल सकता है वरना तो 2013 भी 1977 और 1989 की परछाईं बन कर रह जायेगा। और तब ‘आप’ और केजरीवाल के भविष्य का निर्धारण आप और हम कर ही सकते हैं। http://www.hastakshep.com

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