राजनीति में “माँ ” की मार्केटिंग

maa-गौरव अवस्थी- राजनीति में आजकल “माँ ” बहुत घसीटी जा रही है। माँ के नाम पर लोगों को इमोशनल करने कि एक परम्परा सी चल पडी है। अभी-अभी अमेठी में राजनीतिक पारी शुरू करने वाले कुमार विश्वास ने भी माँ का सहारा लिया।  इसके पहले नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी भी माँ नाम की  महिमा का सार्वजानिक बखान कर चुके हैं। याद कीजिये-मोदी जी की अपने जन्मदिन पर माँ का आशीर्वाद लेते फ़ोटो मीडिया में सुर्खियां बनी थी। पता नहीं वह  मैनेज था या स्वाभाविक।  राहुल जी ने कितनी संवेदना के साथ माँ सोनिया गांधी की सीख का जिक्र किया था।
       अपनी संस्कृति में माँ के आशीर्वाद का महत्व तो बचपने से ही सिखाया-समझाया जाता है। कोई भी छोटे से छोटा काम भी माँ के आशीर्वाद के बिना शुरू ही कहाँ होता है। कौन है जो बिना माँ के आशीर्वाद के किसी काम में सफलता कि उम्मीद कर सके। हाँ , यह है कि माँ का आशीर्वाद बाजार का विषय नहीं था।  माँ शब्द की मार्केटिंग तो अब होनी शुरू हुई है। आप खुद से यह सवाल पूछिए और जवाब दीजिये कि क्या कभी आपने कभी माँ के आशीर्वाद का ढिंढोरा पीटा कि मैं माँ का आशीर्वाद लेकर यह किला फतह करने जा रहा हूँ या कर लिया है।  क्या यह तर्क सही नहीं है कि व्यक्ति जब अंदर से अपने को कमजोर समझता है तब काल-परिस्थिति के अनुसार अवलंब ढूँढता है। आजकल के  राजनेताओं में कुछ यही कमजोरी आप महसूस नहीं  करते। अपने समाज-संस्कृति-स्वभाव में माँ तो महसूस करने कि चीज मानी गई है, जैसे ईश्वर। ईश्वर की तरह ही वह धर्म-अध्यात्म में आई। यह यात्रा पूर्ण होने पर वही माँ साहित्य में दिखने लगी। साहित्य में एक समय  तक तो माँ भावनात्मक टॉपिक की तरह जानी-मानी गयी लेकिन बाद में वह साहित्य का बाजार बढ़ाने वाली बन गयी। साहित्य में माँ पर आजकल कविताओ की बाढ़ है। श्रोताओं को  माँ के नाम पर बाँधा गया। प्रभावित किया गया। अपनी मार्केट तैयार की गई।  साहित्य के  किसी महापुरुष ने कहा था की साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। यह उक्ति वाकई सच साबित होती चल रही है।
    साहित्य ने माँ को बाजार से जोड़ा तो राजनीति ने माँ के नाम की मार्केटिंग शुरू कर दी। लगता है कि राजनेताओं का अब अपने ऊपर से ही  भरोसा कुछ उठता जा रहा है। अब जिस राजनेता को देखो  देखो वह माँ शब्द से  नाम से भव सागर पार करना चाहता है। राजनीति में मुद्दों-चुनौतियों  की कमी तो है नहीं जो यह नया चलन शुरू किया जा रहा है। मेरा मानना है कि एक पवित्र शब्द को अपवित्र सी हो गयी राजनीति में ना  ही घसीटा जाये तो यह नेताओं की बड़ी मेहरबानी होगी। फिर माँ तो माँ है। वह राहुल की हो या मोदी की या केजरीवाल की या किसी आम-ओ-खास की। माँ को दांव पर लगाना कहाँ की नैतिकता है।
माँ पर वैसे तो बहुत सा साहित्य रचा गया है। गद्य में भी पद्य में भी। श्रेष्ठ कवि बालकवि बैरागी की यह कविता द्रष्टव्य है-
जब भी लिखता हूं ‘मां’
तो लेखनी सरल और सारस्वत शस्त्र
हो जाती है।।
कलाई में कंपन नहीं होता
वो हो जाती है कर्मठ
उंगलियां दिपदिपाने लगती हैं
मानो गोवर्द्धन उठा लेंगी।।
जब भी बोलता हूं ‘मां’
जबान से शब्द नहीं शक्ति झरती है
खिल जाता है ब्रह्म कमल
भाषा वाणी हो जाती है
और वाणी?
वाणी हो जाती है दर्शन।।
जब भी सोचता हूं मां के बारे में
हृदय देवत्व से भर जाता है
अन्तर का कलुष मर जाता है।।
याद आता है उसका कहा-
‘बेटा! ईश्वर ने जीभ और हृदय में
हड्डियां नहीं दीं।
क्यों?
फिर समझाती थी
‘जीभ से कोमल और मीठा बोलो
हृदय से निश्छल और निर्मल सोचो।’
मैं वात्सल्य और ममता से छलछलाती
उसकी कल्याणी आंखों में
खुद को देखता रह जाता।।
फिर
अपने अमृत भरे वक्ष को
आंचल से ढंकती हुई मुझे
ममता-वात्सल्य और आंचल का
अर्थ समझाती
कर्म-कर्मठता-पुरुषार्थ-परमार्थ
पुण्य और परिश्रम का पाठ पढ़ाती
अपनी गाई लोरियों में
जागरण में छिपे मर्म को
नए सिरे से गाकर सुनाती।।
मैं अबोध होकर सुनता रहता।।
‘घर’ और ‘मकान ‘ का फर्क बताती
‘विवाह’ और ‘विश्वास’ का भेद सुनाती
‘परिवार’ और ‘गृहस्थी’ की गूढ़ ग्रंथियां सुलझाती।।
जीतने पर इतराना नहीं
हारने पर रोना नहीं
गिरने पर धूल झटककर
फिर से उठ खड़े होना सिखाती
‘लक्ष्य’ और ‘आदर्श’ का फासला
तय करवाती।।
मेरी डिग्रियों पर अपना दीक्षांत (दीक्षान्त) लिखती
कम बोले को ज्यादा समझने की
कला बताती।।
पेड़-पत्तों और जड़ों का रिश्ता
धरती और आसमान से जोड़कर
मौसम और ऋतु से
आयु का गणित जोड़ती
मुझे भीतर तक मथ देती
मेरी नासमझी की बलैया लेती
मैं समझने की कोशिश में
अवाक सुनता रहता।।
आज ‍िबलकुल अकेला मैं
सोचता हूं
हाथ तो भगवान ने मुझे बस
दो ही दिए हैं
पर मातृ-शक्ति मेरी मां ने
कितने शस्त्र दे दिए हैं
मेरे इन दो हाथों में
इन्हें आजमाऊंगा मैं अपने जीवन संग्राम में
इन्हें नहीं घुमाऊंगा
किन्हीं जुलूसों और बारातों में।
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