जो सूखा है वो भी बनारस, जो रूखा है वो भी है बनारस

banarasबनारस को इन दिनों खूब मथा जा रहा है, कैमरा, लाइट, बाइट, हां-हां, वाह-वाह के शोर से हटकर एक और बनारस है। जहां तक पहुंचना थोड़ा मुश्किल है, और जब बड़ी सहजता से कैमरे को सब कुछ सजा-सजाया, बना-बनाया पडरोसने को मिल ही जा रहा है। तो उस बनारस तक पहुंचने की जहमत कौन करे जो सूखा है, जो रूखा है, जो लड़ रहा है और जो मर रहा है।

बनारस के नाम पर कैमरा गंगा की घाटो से शुरू होकर वहीं थम जा रहा है। पर जिदंगी तो यहां घाटो से परे भी कहीं सिसक रही है, जीने का रास्ता तलाश रही है, अवसादों से लड़ रही है। हुनर भी है और बहुत कुछ कर गुजरने का इरादा भी। नहीं है तो केवल मौका। सुबह होती है, शाम होती है जिदंगी यूं तमाम होती है की तर्ज पर बस सिर पटकते रहती है। मां अन्नपूर्णा के इस शहर में रोज भूख, बीमारी, कुपोषण से लड़ता, कालाहांडी और इथोपिया का इलाका भी है। और अल सुबह से लेकर चढ़ते दिन तक चैराहों पर काम की तलाश में बिकती जिदंगी भी। न मिला काम तो घाट से चंद कदम दूर दानी तो मिल ही जाते है, खटकर न सही तो मांगकर ही सही, घंटो कतार में खड़े होने के बाद पेट तो भर रहा है, सच कह दू तो दिक्कत होगी पर बनारस मर रहा है।

एक और तस्वीर भी कि जबरन मोक्ष के नाम पर हर दिन मन में उठती ख्वाहिशों को मार कर मौत के इन्तजार में वृद्धा आश्रम की खिड़कियों पर बैठ खुले आसमान को निहारती बूढ़ी मांएं भी इसी शहर में हैं। पर इन्हें टटोलने और इनकी सुनने से मिलेगा क्या? टीआरपी बढ़ेगी नहीं, सो कैमरा इधर नहीं घूमता। पूरा देश देख रहा है, सो सजे-सवरें नजाकत से बात करते चेहरों की जरूरत है ताकि दिखाया जा सके कितना मस्त है, बनारस भले ही आज की तारीख में पस्त है बनारस।

बड़ा नेता कौन और छोटा कौन। कौन स्थानीय और कौन बाहरी। इस पर आजकल खूब बहस है। जोशी जी खिसक लिए मगर नारों में जोश वही है, सड़के बदहाल है, कैमरा अगर घाटो से खिसक कर थोड़ा दहिने या बाये घूम जाए तो पता चले कि शहर के ढेरो ऐसे इलाके है, जिनमे लाखों की आबादी रोजमर्रा की बुनियादी सुविधाओं से दूर ऐसे जी रहे है, कि जिदंगी को निचोड़ रहे है पता नहीं चलता। पार्कों में बच्चों की जगह सुअर घुमते नजर आते है, और आती-जाती बिजली की जादुई झप्पी के बीच टीवी पर बच्चें एलिस इन वंडर लैंड की दुनिया में वक्त गुजार रहे है।

कौन कबीर और कौन नज़ीर के बीच प्रेमचन्द भी ठगे-ठगे से खड़े होकर लोगो से लमही का पता पूछ रहे है। लमही हो या लहरतारा सबद, साखी, ईदगाह से ज्यादा बड़ा निक लागे लू लोगो के दिलों-दिमाग पे छाया है। ऐसे में अच्छे दिन आने वाले है का तड़का निचोड़ लिये गये एहसासों को बुझी राख जितना गर्मा रहा है। देश की सूरत बनाने चला इस बीमार शहर की सूरत और सीरत पर भी कैमरा थोड़ा जूम-इन हो जाए फिलहाल ये बनारस पूरी तरह जूम-आउट है, ज्ञान की आंधी कोसो दूर है, भ्रम की टाट पर बनारस की तलाश जारी है।

भाष्कर गुहा नियोगी। संपर्कः[email protected]
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