16 मई को 16वीं लोकसभा चुनाव का परिणाम आना है। क्या इस बार के चुनाव में मीडिया की भूमिका वो रही है जिसकी लोकतंत्र में दरकार रहती है। एक्जिट पोल में साफ तौर पर दिख रहा है कि इस बार के चुनाव में एनडीए को बहुमत मिलने की संभावना है। यानि नरेंद्र मोदी इस बार के चुनाव में सबसे बड़े नेता के रुप में उभर कर आ रहे है। क्या इस बार चुनाव में मीडिया हारी या जीती है? यह सवाल अपने आप में दिख रहा है कि जिस तरह से मीडिया की भूमिका इस बार के चुनाव में सामने आई है वो अपने आप में प्रश्न चिन्ह लगाती है।
मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैं खुद एक मीडियाकर्मी यानि पत्रकार हूं। मीडिया के सार्वजिनक जीवन में कहा जाता है कि जो दिखता है वो ही बिकता है। यानि इस बार के चुनाव में मीडिया इतनी ज्यादा राजनैतिक निवेशक कैसी हो गई, कि एक चेहरे को लगातार घंटो भर दिखाती रही। किसी ने एक बार भाजपा से या मोदी से यह नहीं पुछा की इस घनघोर प्रचार के पीछे जो पैसा खर्च किया गया वो पैसा आया कहां से। यह बात स्पष्ट है कि आज के दौर में मीडिया पूर्णतः बाजारवादी हो गई है। लेकिन क्या मीडिया की छवी जो लोगों के बीच कायम थी वो क्या अब कायम रह पाएगी? क्योंकि जिस तरह से मीडिया इस चुनाव में … विकास, रोजगार, सफाई, पानी, भोजन, सुरक्षा, विदेश नीति, या ऐसे कई मुद्दे जिन पर मीडिया बात कर सकती थी, उन पर मीडिया ने ज्यादा गंभीरता नहीं दिखाई।
मीडिया ने अपने प्रकाशन में या कवरेज में बड़े रुप में मोदी को ही केंद्र रुप बनाकर पेश किया, जिससे एक पर्सेप्शन बन गया कि देश का सर्वोपरी नेता एक मात्र नरेंद्र मोदी ही है। मैं इस लेख में मोदी की आलोचना या प्रंशसा में नहीं कर रहा हूं, मैं तो मीडिया की भूमिका और यर्थात स्थिति के बारे में अपने विचार प्रस्तुत कर रहा हूं। कहा जा रहा है कि मोदी के चुनाव प्रचार के लिए लगभग दस हजार करोड़ रुपय खर्च किए गए। अगर इतना बड़ा खर्चा मोदी के प्रचार पर किया गया तो स्वाभाविक तौर पर बात समाने आनी चाहिए कि यह पैसा आया कहां से, कौन है इस व्यवस्था के पीछे। क्या आप सभी को नहीं लगता कि मीडिया के माध्यम से मोदी की छवी निर्माण कर एक व्यापक हवा बनाई गई, जिसका फायदा मीडिया और मोदी को हुआ। लेकिन नुकसान सीधे तौर पर भारत की जनता को हुआ, क्योंकि इस हवा में वो मुद्दे गौंण रह गए जिसकी वजह से चुनाव होना था।
भारत की जनता ने यूपीए के दो कार्यकाल देखे। देश की जनता को कई मोर्चे पर शिकस्त का मुहं देखना पड़ा। यूपीए के पास लगातार दो कार्यकाल थे। लेकिन देश की जनता की नब्ज पहचाने बिना कई ऐसे निर्णय लिए जिसका खामियाजा इस चुनाव में यूपीए और कांग्रेस को देखने को मिल जाएगा। राहुल गांधी, मोदी व्यक्तिगत तौर पर ईंमादार और कर्मठ हो सकते है, लेकिन दो बड़ी पार्टियों ने देश के युवाओं के लिए रोजगार और मेंहगाई से किस तरह से निजात पाया जाए इस बारे में कोई विशेष बात नहीं की। मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं। क्योंकि मोदी ने अपने उद्बोधन में मेंहगाई कम करने और रोजागर की तदादा किस तरह से बढ़ाई जाएगी, इस बारे में बात स्पष्ट तौर पर कभी नहीं कहा। क्या इससे नहीं लगता है कि मोदी के नाम पर मीडिया में जो हवा बनाई गई वो पत्रकारिता के हित में रही या नहीं यह गंभीर बात है?
वहीं आज मैं मोदी का भारत की राजनीति में उदय उसी तरह से देख रहा हूं जैसा कि 6 दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद विधवंस के दौरान देखा था। उस दौर में आरएसएस ने यह बात लोगों के जेहन में बैठाने की कोशिश की राममंदिर का निर्माण अध्योया में हीं होगा और उस भावना का संचार इतना किया गया कि लोग अपनी नौकरी छोड़ कर कारसेवक बन गए। कारसेवकों के मुख से एक बात निकल रही थी राम लल्ला को लाएंगे…. मंदिर वहीं बनाएगें … यानि अध्योया में।
उस के बाद देश में क्या हुआ वो आप सभी को पता है। मैं आज मीडिया की भूमिका भी उसी रुप में देख रहा हूं कि मीडिया ने मोदी की हवा बना कर यह बताने का प्रयास किया कि देश में एक मात्र नेता या पार्टी सिर्फ मोदी ही है। मुद्दे मुख्य नहीं है। वहीं अगर देश में सही तौर पर लोकतंत्र का निर्माण करना है तो मीडिया को अपनी भूमिका को बाजारवादी से बाहर निकालना होगा। अन्यथा देश के साथ लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी ढह जाएगा। और देश की जनता मीडिया को सिर्फ मनोरंजन का जरिए ही समझने लग जाएगी इतनी गंभीर नहीं होगी जितनी कि आज है…….. सोचें जरा……..
-महेश वर्मा, जन टीवी
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