कुछ हद तक आपातकाल जरूरी

सिद्धार्थ जैन
सिद्धार्थ जैन
भाजपा के सीनियर लीडर लालकृष्ण आडवानी के आपातकाल की आशंका के बयान ने एक बहस छेड़ दी हे। 25 जून वह काला दिवस था जब इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाने की घोषणा कर दी। अब तीसरी पीढ़ी हे जिसे भी आपातकाल का मतलब मालुम नही हे।
किशोरावस्था में मेने उसे खूब निकटता से देखा हे। तब प्रतिबन्धित आरएसएस के लिए छुप छुप कर रात दिन एक किये। सरकार के विरुद्ध लिखने बोलने वालो को सीधे जेल की हवा खानी होती। कही कोई सुनवाई होने का सपना भी बेकार होता। निरपराधो को बेवजह 19-19 महीने जेलों में ठूंसे रखा गया। इन्दिरा के छोटे पुत्र संजय गांधी ने तो सब हदे ही तोड़ डाली।
आपातकाल लगा कर इन्दिरा निरंकुश हो गई। संजय के लिए एक नारा आम हो चला..संजय गांधी के तीन दलाल…!! तब देश के तमाम बड़े नेताओ को जेलों में डाल दिया गया। देश में चारो ओर अराजकता का नंगा नाच आम बात हो गई। इन्दिरा ने कांग्रेस में भी अपने सेकड़ो विरोधियो को नही बख्शा। संजय की चांडाल चोकड़ी के जबरन नशबंदी अभियान ने तो समूचे भारत वर्ष में मानो हाहाकार ही मचा दिया। आपातकाल के भयावह हालातो पर लिखा जाए तो शायद स्याही सूख जाए।
मै अभी वह सब लिखने के मूड में भी नही हू। मेने उस काल में भी जो कुछ अच्छा देखा। किशोर बुद्धि को भी जो कुछ देश हित का दिखा। आज उसी को शेयर करना चाह रहा हू। उन विपरीत परिस्थितियों में भी मेने देखा..। समय की पाबन्दी..। सरकारी दफ्तर हो। रेले हो। बसे हो। अथवा और कोई भी हो। सब कुछ घड़ी की सुईयो के मुताबिक़ ही चलना शुरू हो गया। कर्मचारियों में शासन का भय पैदा होने लगा।
मेने देखा। सभी सरकारी दफ्तरो में दस बजने से कुछ मिनिट पहले ही कर्मचारी अपनी सीटो पर जम जाते। राजस्थान सचिवालय में खुद मुख्यमन्त्री दस बजे मेन गेट के ताला लगा चाबी अपनी जेब के हवाले कर देते। लेट लतीफी के लिए फेमस ट्रेने भी अपने तय समय पर चलने लग गई। यात्रियों को इससे खूब सुकून मिलने लगा। सरकार के डर के मारे लंच में भी कर्मचारी सीट पर बेठे ही कुछ खा पी लेते। कर्मचारियों के जहन से हड़ताल शब्द का तो मानो लोप ही हो गया। अस्पतालों में डाक्टर ड्यूटी को लेकर सावचेत रहने लगे। यही हाल निजी जनजीवन में भी नजर आने लगा।
उस काल में भ्रष्टाचार मानो गये जमाने की बात होने लगी। वो होता भी होगा तो ऊचे स्तर पर रहा होगा। अपेक्षाकृत निचले स्तर पर अपवाद रूप में ही देखने को मिलता। इससे आम लोगो को राहत मिलने लगी। मेरी कोई आपातकाल की पैरोकारी करने की भावना नही हे। लेकिन हमे प्रत्येक पक्ष का अच्छा पहलू भी देखना जरुर चाहिए। इन्दिरा गांधी ने आपातकाल लगा कर भले ही अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल कर दी हो। लेकिन उनकी दबंगता का लोहा विश्व ने माना। बंगला देश हो.. पंजाब से आतंकवाद के सफाया का कारनामा हो..रजवाडो के प्रिवर्स समाप्त करने के साहसी कदम आदि आदि हो। उनकी जबरदस्त विल पावर के ही उदाहरण हे।
देश आज हजारो करोड़ रुपयों के घोटालो का जबरदस्त दंश झेल रहा हे। विगत कुछ वर्षो में यथा राजा यथा प्रशासन हो गया। सरकारे पंगु हो चुकी। नेता-ब्यूरोक्रेट बेलगाम हो गये। नेता अधिकारी पुलिस व मिडिया तक का कोकस बन गया। सक्षम ईमानदार अफसर बेबस हो मूक बन बेठे। देश आतंकवाद के साए में सिसकिया भरने को बेबस हे। विगत वर्षो में देश के शासको के विल पावर में जबरदस्त कमी देखने को मिली हे। इसके चलते हमे छोटे छोटे देश आँख दिखाने लग गये। विश्व में भारत कमजोर दिखने लगा। यह सब कमजोर शासक के चलते देश को भुगतना पड़ा हे।
देश ने अब तक सब नेताओं को देखा हे। चुनावों से पहले जेसे जेसे मोदी बोले। लगा इस नेता में दम हे। इनसे दूर इनका परिवार अब तक किसी भी विवाद के साए से दूर हे। यह अपने आप में बड़ा उदाहरण हे। आपातकाल के साए से रूबरू हुई पीढ़ी के अनेको लोगो से मेरी चर्चा होती रहती हे। अधिकांश की सोच हे। शासन की सख्ती होनी ही चाहिए। भले ही “मिनी” आपातकाल से हालात ही क्यों न बनाने पड़े। उसमे देश हितो के लिए ही सख्ती हो। विकास के मामले में कड़ाई से पालना कराई जाए। हमारे साथ अथवा हमारे बाद स्वतन्त्र हुए कई देशो के उदाहरण हमारे सामने हे। मोदी को “अपनो” से भी निपटना हे। देश के खातिर एक ही तमन्ना हे। मोदी को देश की अस्मिता की रक्षा व विकास के लिए जो भी कदम उठाने पड़े। उठावे। वे इसे याद रखे.. कि उनके पास खोने को कुछ भी नही हे। पाने को बहुत कुछ हे। उनको ईतिहास पुरुष बन कर दिखाना हे।
सिद्धार्थ जैन पत्रकार, ब्यावर (राज.)

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