ज़रूरत है कि हम धर्म और इसके रीति-रिवाजों पर पुनर्विचार करें

आराधना समदरिया की मौत को देखते हुए ज़रूरत है कि हम धर्म और इसके रीति-रिवाजों पर पुनर्विचार करें

अक्सर ऐसा होता है कि हमारे आस-पास हुई कोई विचलित कर देने वाली घटना हमें उससे जुड़े अपने व्यक्तिगत जीवन के अनुभवों की याद दिला देती है। आराधना समदरियाकी मौत ने मेरे लिए ऐसा ही किया। मैं अपनी कहानी को इस तरह बयाँ नहीं करना चाहता कि ये सारी बात मेरे ही इर्द-गिर्द सिमट कर रह जाए लेकिन मुझे लगता है कि इस घटना को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने के लिए ये शायद ज़रूरी होगा कि मैं ये बताऊँ कि जो कुछ भी हुआ उसे मैं किस तरीक़े से देखता हूँ और उस पर मेरी प्रतिक्रिया क्या है।
मेरे बड़े होने के दौरान मेरे साथ वो सब कुछ हुआ जो किसी भी धार्मिक जैन परिवार में होता है, ना सिर्फ़ आस्था के स्तर पर बल्कि धर्म की पालना के तौर पर भी। धर्म की इस दुनिया में मेरा प्रादुर्भाव किस तरह हुआ इसकी पड़ताल कर पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं है क्योंकि उस वक़्त की कोई यादें मेरे पास बची नहीं है। लेकिन जो कुछ यादें बाक़ी हैंमैं उन्हीं में से कुछ को फिर से टटोलना चाहता हूँ।
जिस बिल्डिंग में मेरा बचपन बीता वहाँ सिर्फ़ मारवाड़ी जैन परिवार ही रहा करते थे। उनमें से सिर्फ़ एक मराठा था; जो कि उस बिल्डिंग का मालिक भी था। मैं जिस घर में रहताथा वो किराए पर लिया गया था और वो भी 1960 से। जब मैं अपनी यादों को टटोलने की कोशिश करता हूँ या उन बातों को याद करता हूँ जोकि अक्सर घर पर की जाती थीं तो सा कोई भी लम्हा याद नहीं आता जिसमें कहीं भी ‘धोंडी बा’ का कभी कोई ज़िक्र हुआ हो। हमारे घर के मालिक होने के बावजूद एक अलग धर्म और जाति का होने की वजहसे हमारे घर की बात-चीतों में कहीं भी उनके लिए कोई जगह नहीं थी। हम सिर्फ़ उन्हीं लोगों के बारे में बात करते थे, उन्हें अपने घर बुलाते थे और उनके यहाँ जाना हमें पसंद थाजो हमारे ही धर्म और जाति के थे।और आज भी मेरे परिवार या समुदाय के लिए ये सब बदला नहीं है।
घर की चारदीवारी से बाहर, धर्म के साथ मेरे पहले जुड़ाव की याद तब की है जब मुझे ‘पूजा’ करने के लिए एक मंदिर ले जाया गया। जैन धर्म किसी भगवान/भगवानों में विश्वासनहीं करता, ये मुझे बहुत बाद में पता चला। लेकिन फिर भी इस धर्म में भी इसके अपने ‘भगवान’ हैं जिनकी पूजा की जाती है। मुझे नहलाया गया और नए कपड़े पहनाए गएजोकि सिर्फ़ इसी मौक़े के लिए अलग से रखे गए थे (उस दिन भी और उसके बाद हर दिन)। मैं ना तो इन कपड़ों को पहनकर खा सकता था और ना पेशाबघर जा सकता था क्यूँकि ऐसा करने पर ये कपड़े प्रदूषित हो जाते और मेरे बाक़ी कपड़ों की ही तरह हो जाते। ये कहना तो ज़रूरी ना होगा कि इस मंदिर में सिर्फ़ वही लोग आते और पूजा करते थेजो हमारे ही सम्प्रदाय के थे।
जब मैं कोई सात-आठ बरस का हुआ तो पर्यूशन (आठ दिन का एक उत्सव जो महावीर जयंती के दिन ख़त्म होता है) पर्व मेरे लिए पूजा करने और धर्म को समझने और अपनेअनुभव
पर्यूशन ‘चातुर्मास’ की शुरुआत के लगभग दो महीनों बाद आता है। चातुर्मास मानसून के चार महीनों के साथ पड़ता है। जैन धर्म की प्रथाएँ कोई मैकडॉनल्ड के मेन्यू से कमनहीं! एक व्यक्ति इनमें से किसी भी ‘कॉम्बो’ को चुन सकता है चातुर्मास के पालन के लिए-
दुविहार – दिन के समय जितना चाहे खा सकते हैं, लेकिन सूर्यास्त के बाद 10 बजे तक सिर्फ़ दवाई और उबला हुआ पानी ही ले सकते हैं। (कुछ जैन मुनियों के अनुसार 12 बजेतक पानी पिया जा सकता है।)
तिविहार – दिन के समय जितना चाहे खा सकते हैं लेकिन सूर्यास्त के बाद 10बजे तक सिर्फ़ उबला हुआ पानी ही पी सकते हैं।
चौविहार – दिन के समय भोजन खा सकते हैं लेकिन सूर्यास्त के बाद ना तो पानी पी सकते हैं और ना खाना खा सकते हैं।
ब्यासना – दिन में सिर्फ़ दो बार भोजन करना, सिर्फ़ उबले हुए पानी के साथ और वो भी सिर्फ़ सूर्यास्त से पहले।
एकाशना – दिन में सिर्फ़ एक बार भोजन करना, उबले हुए पानी के साथ, सूर्यास्त से पहले।
उपवास – बिलकुल भी खाना ना खाना, सिर्फ़ उबला हुआ पानी पीना वो भी सूर्यास्त से पहले तक।
चौविहार उपवास – पानी या खाने का बिलकुल भी सेवन ना करना।
अट्ठम – तीन दिन तक उपवास करना।
अट्ठाई – आठ दिनों तक उपवास करना।
15 दिनों तक उपवास करना।
मासखमन – 30 दिनों तक उपवास करना यानि कि भोजन का बिलकुल भी सेवन ना करना।
अपने परिवार के बड़ों को पूरे समर्पण से उपवास करते देख मुझे भी प्रेरणा मिली। पहले तो मैंने छोटे उपवास रखे। ज़्यादा से ज़्यादा एक ‘एकाशना’।
मुझे याद है जब मैंने पहली बार उपवास रखा तो मैं 8वीं कक्षा में था। मेरी माँ और चाची ने ‘अट्ठाई’ रखा था यानि कि आठ दिनों का उपवास। मैं ये कह सकता हूँ कि मेरा पहलाउपवास मैंने अपनी ‘मर्ज़ी’ से रखा था। ये कोई ज़्यादा मुश्किल नहीं था, बेशक रात में मुझे कई सपने आए जिनमें मिनट मेड के पल्पी ओरेंज जूस की बोतल भी शामिल थी!अगले साल मैंने आठ दिनों का उपवास रखा।
इस सब में सिर्फ़ ये समझना काफ़ी नहीं कि व्रत-उपवास रखना क्या होता है बल्कि ये भी समझना ज़रूरी है कि ये सब कैसे होता है (आख़िर क्या है जो बच्चों को ऐसे उपवासरखने को प्रेरित करता है)। यह तब मेरे ज़हन में साफ़ हो जाता है जब मैं विचार करता हूँ कि चौथी कक्षा से आठवीं कक्षा में आने के बीच मेरे साथ क्या-क्या हुआ। हमें (यानि हमारे समुदाय के बच्चों को) ‘पाठशाला’ में भेजा जाता था, हालाँकि ‘पाठशाला’ शब्द का मतलब तो विद्यालय भी होता है लेकिन यहाँ यह पाठशाला एक धार्मिक पाठशाला थी जैसे कि इस्लाम में मदरसा होता है। मुझे (और मेरे चचेरे भाई-बहनों को) वहाँ मेरी माँ और चाची द्वारा ले जाया जाता था।पाठशाला में हमें धर्म के उपदेश दिए जाते थे। एकअच्छा जीवन जीने के लिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं, यह बताया जाता था। 40-50 साल की एक बुज़ुर्ग महिला हमें पढ़ाती थी। मुझे वो वाक़या याद है जब हमें एक किताबसे कुछ चित्र दिखाए गए थे जिनमें इंसानों के टुकड़े करने और उन्हें तेल में सेंकने जैसी तस्वीरें थीं जोकि मूलतः ‘नरक’ का चित्रण था। चातुर्मास के उत्सव में एक ख़ास तरीक़े की प्रतियोगिता होती थी। । हमें एक कार्ड दिया जाता था जिस पर कई खाने बने होते थे। पहले कॉलम में कई चीज़ें लिखी होती थीं, जैसे ‘पूजा की’, ‘मंदिर गया/गयी’, ‘रात को खाना नहीं खाया’, ‘कुछ दान किया’, आदि। हममें से हर एक को उन खानों को टिक करना होता था जो काम हमने उस दिन किए। इस हर एक काम के लिए हमें ‘पोईंट’ मिलते थे और इन सबका योग करने के बाद जोफ़ाइनल स्कोर होता था उसके आधार पर हमें गिफ़्ट मिला करते थे। यह परम्परा बिना शर्म के आज भी बदस्तूर जारी है।
मैं यहाँ इतनी छोटी-छोटी बातें भी इसलिए बयान कर रहा हूँ क्यूँकि उन लोगों की बातों को झुठलाने का यही एक तरीक़ा है जो कह रहे हैं कि आराधना समदरिया की मौत एक हादसा था और उसने उपवास अपनी ‘मर्ज़ी’ से रखा था।
नहीं, ऐसा क़तई नहीं है। उसी तरह जैसे मैं और मेरे इर्द-गिर्द के हर बच्चे ने अपनी ‘मर्ज़ी’ से ऐसा नहीं किया। यह उपवास तो हमारी धर्मिकता के आधार पर मिलने वाले इनामों और उस भय का परिणाम था जो धीरे-धीरे हमारे अंदर बैठाया गया था कि अगले जन्म में हमारा क्या हश्रहोगा। मुझे हमेशा ये बताया गया कि मैंने पिछले जन्मों में कुछ पुण्य किए थे जिनकी वजह से मेरा जन्म इस बार ‘दुनिया के सबसे बेहतरीन धर्म’ में हुआ है।
संस्कृति और संस्कार के नाम पर हमारा इंडॉक्ट्रिनेशन बहुत जल्दी ही शुरू हो जाता है और वो भी ऐसे तरीक़ों से जो हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में किए जाने वाले कामों के आधार पर कच्ची उम्र में ही हमारे अंदर आस्था के बीज बोती है।
बिना ज़्यादा तफ़सीलों में जाए मैं एक अन्य विवादास्पद लेकिन इससे जुड़े हुए मुद्दे पर बात करना चाहता हूँ और वो है ‘सनथारा’ यानि कि धार्मिक वजहों से आमरण उपवास करना। मैं यहाँ हाल ही निखिल सोनी बनाम भारतीय संघ के मुक़दमे में राजस्थान राज्य द्वारा पेश की गयी दलीलकी तरफ़ आपका ध्यान लाना चाहूँगा। राजस्थान राज्य ने अपनी दलीलों में ‘दबाव के तहत किए गए धार्मिक कृत्य’ और ‘धार्मिक परम्परा या रिवाजों’ के बीच फ़र्क़ किया है। जो लोग जैन धर्म को समझने के बाद इसे ग्रहण करते हैं उन्हें छोड़ दिया जाए तो हर जैन परिवार के बच्चों परधार्मिक प्रथाओं का थोपा जाना ‘दबाव’ नहीं तो और क्या है!
आराधना समदरिया का 68 दिनों का उपवास शायद उसके माता-पिता की नज़रों में किसी दबाव का परिणाम नहीं था। लेकिन एक समुदाय द्वारा ऐसी प्रथा का पालन करना उस 13 साल की बच्ची को 68दिनों तक उपवास करने के लिए दबाव का परिणाम नहीं तो और क्या है।अंतर्जातीय या अंतर-धार्मिक विवाह जैसी प्रवृत्तियाँ जैन समुदाय में बहुत कम ही देखने को मिलती हैं क्यूँकि एक आम जैन व्यक्ति को ‘बाज़ार’ के अलावा और किसी संस्कृति से रूबरू होने का कोई मौक़ा ही नहीं मिलता। ऐसे वाक़ये आए दिन होते रहते हैं लेकिन इन्हें चुनौती देने वालाकोई नहीं होता। एक लड़की को ‘माहवारी हिंसा’ के ख़िलाफ़ बोलने नहीं दिया जाएगा, अगर उसकी मर्ज़ी ना हो तो भी उसे मंदिर जाने से मना करने की इजाज़त नहीं होगी, किसी लड़के को कोई माँस खाने वाला दोस्त रखने की कोई इजाज़त नहीं होगी (अपनी मर्ज़ी से माँस खाने काफ़ैसला करना तो ईश-निंदा करने के बराबर होगा), लेकिन एक 13 साल की बच्ची को 68 दिन का उपवास रखने दिया जाएगा इसलिए क्यूँकि किसी भिक्षु ने उस लड़की के पिता से कहा होगा कि बच्ची के उपवास रखने से उनका कारोबार फलेगा-फूलेगा।
आराधना की मौत जैन समुदाय को लेकर ‘पंथ-निरपेक्षता’ के सवालों पर पुनः सोचने पर मजबूर करती है। जैन धर्म में महिला-पुरुष एवं लड़के-लड़कियों के ‘दीक्षा’ लेकर (लगभग ‘सन्यास’ की तरह) भौतिक संसार की सभी ज़रूरतों, इच्छाओं और आकांक्षाओं को छोड़ देने की प्रथा रही है। कई बार ऐसा भी होता है कि 15साल से भी छोटे लड़के-लड़कियों को ऐसे पथ पर स्वीकार कर लिया जाता है। आख़िर उनका ये क़दम कितना ‘स्वैच्छिक’ है? यह वाक़या राज्य-सत्ता और धर्म के बीच सम्बन्धों को लेकर भी पुनर्विचार करने पर मजबूर करता है। ख़ासकर जैन धर्म जैसे धर्म के बारे में जो ‘अल्पसंख्यक’ होने का फ़ायदा उठाते हुए अपनी परम्पराओं को बचाने और संरक्षित करने का काम कर रहा है। ये तो क़तई ऐसी परम्परा नहीं है जिसे हमें बचाना चाहिए।

Shrenik Mutha
+91-7276580662
Pune

-अनुवाद: अमित शर्मा

-श्रेणिक मुथा ILS Law College, पुणे के छात्र हैं| उनसे shrenik.mutha@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता हैं|

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