–अजीत सिंह– 2014 लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र, हालिया कई सर्वे हुए और सभी ने कमोवेश भाजपा और कांग्रेस की सीटों में 10-15 सीटों से ज़्यादा का अंतर नहीं दिखाया और ना ही ही दोनों राष्ट्रीय पार्टियां 543 सांसदों वाली लोकसभा की सीटों में से अकेले दम पर 150 सीट भी हासिल करने की स्थिति में हैं! कुछ सर्वे तो दोनों पार्टियों को मिलाकर महज़ 260-270 सीट ही दिखा रहे हैं! यानी सर्वे को सही माने तो तकरीबन पौने तीन सौ सीट क्षेत्रीय पार्टियों के खाते में जायेंगी! गर ऐसा हुआ तो क्या होगा?
यकीनन ! आम आदमी के लिए बहुत सूकून देने वाली खबर नहीं होगी ! लोकतंत्र में स्थायी सरकार उतनी ही ज़रूरी है , जितनी एक संतुलित खुराक स्वस्थ जीवन के लिए ! मगर जब दोनों ही नेशनल पार्टी (सर्वे के मुताबिक़) हाशिये पर हैं और क्षेत्रीय पार्टियों के गठबंधन का संभावित गठजोड़ टिकाऊ रहने की स्थति में नहीं दिखता तो क्या होगा? या तो भाजपा नरेन्द्र मोदी के तथा-कथित सशक्त नेतृत्व का ढिंढोरा पीट NDA का अपना कुनबा बढ़ाकर चुनावी मैदान में कूदे और 272 के जादुई आंकड़े को छू कर सरकार बनाए या फिर कांग्रेस नेतृत्व वाली UPA अपनी सरकार की नाकामियों पर पर्दा ढँक कर जनता-जनार्दन को लुभाए और लगातार तीसरी बार केंद्र पर काबिज़ हो ! लेकिन इस समीकरण और इसकी सफ़लता में संदेह की बेहद गुंज़ाइश है ! यानी फिलहाल मामला धर्म-संकट के दौर से गुज़र रहा है और चुनाव परिणाम आने तक इसी जद्दोज़हद में अटके रहने की संभावना ज़्यादा है!
अब मान लेते हैं कि कांग्रेस और भाजपा दोनों को जनता-जनार्दन ने बुरी तरह से नकार दिया और क्षेत्रीय पार्टियों का जलवा क़ायम हो गया….तो क्या होगा? और भी दुर्गत होगी! वर्चस्व वाली क्षेत्रीय पार्टियों में समाजवादी पार्टी, बसपा, ए.आई.ए.डी.एम्.के., डी.एम्.के., जे.डी.यू., बीजद, वाई.एस.आर.कांग्रेस, टी.डी.पी., नेशनल कॉन्फ्रेंस, राजद इत्यादि प्रमुख हैं! इन पार्टियों पर जिन भी राजनीतिक पंडितों की नज़र रहती है, वो यही बतायेंगें कि ये सभी अवसरवादी हैं! सैद्धांतिक मामलों को ये मौसम समझते हैं और अपने निजी नफ़ा-नुक्सान के हिसाब से गरजते-बरसते हैं! अवसर और रूख के हिसाब से सौदेबाजी, इनके कट्टर आदर्शों में से एक रहता है ! जनता के हितों की रक्षा और मूलभूत सुविधाओं की उपलब्धि की बजाय मुट्ठीभर लोगों को आवारा पंछी की तरह उड़ने देने का सरकारी लाइसेंस बांटना ही इन पार्टियों का अनौपचारिक आदर्श बन जाता है! इस मामले में वाम दलों को अपवाद का मुनाफ़ा बांटा जा सकता है!
ज़ाहिर है, ये सब पार्टियां देश और जनता-जनार्दन के लिए एक-जुट होंगी भी तो अलग होते देर नहीं लगेगी! ऐसे में क्या होगा इस देश का राजनीतिक भविष्य और क्या होगा आम आदमी का हाल? बेहाल….एकमात्र जवाब! बात जब चुनाव और वोट की हो तो ये लोकतंत्र है और जनता-जनार्दन ही माई-बाप होती है…इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता….बार-बार चुनाव के खर्चे का बोझ नेता और सेठ लोगों के लिए भले ही जश्न का कारण हो मगर आम आदमी के लिए किसी नश्तर से कम नहीं ! और ऐसे भी कहा जाता है कि राजनीतिक अस्थिरता और दंगे का शिकार अमूमन आम आदमी ही हुआ करता है! ऐसा सुना है कि जनता समझदार होती है… ये भी सूना है कि..ये पब्लिक है सब जानती है ! पर ऐसा कहने में कोई खुदगर्ज़ी नहीं झलकती कि….ऐसे में भाजपा और कांग्रेस की गैरमौजूदगी का संकट आम आदमी की परेशानियों में इजाफा ही करेगा! http://visfot.com