–संजय तिवारी– यह महज संयोग ही है कि देश में आसाराम का प्रकरण ऐसे समय में सामने आया जब पुणे में अंधश्रद्धा के खिलाफ अभियान चलानेवाले नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या हो चुकी थी। मीडिया में अंधविश्वास और अविश्वास के बीच बहस में आसाराम सामने आ गये। वह भी ऐसे मामले में जिसमें उबलकर सारा देश अभी भी ठंडा नहीं हुआ है। एक नाबालिग से दुष्कर्म कानून बनाने से पहले भी त्याज्य और घोर सामाजिक अपराध तो है ही, कानून ने ऐसे मामलों को और अधिक संवेदनशील बना दिया है। ऐसे में अगर आसाराम का नाम किसी नाबालिग के साथ दुष्कर्म में सामने आया तो सिहरना स्वाभाविक ही था। तो क्या सिर्फ नरेन्द्र दाभोलकर के हत्या की पृष्ठभूमि और बलात्कार विरोधी उबाल के कारण ही मीडिया ने आसाराम के खिलाफ मोर्चा खोल दिया? अगर कोई यह शिकायत करे कि आसाराम के खिलाफ मीडिया जानबूझकर अदावत निकाल रहा है तो उस अदावत के मूल में क्या है?
शुरूआत उस दिन से होती है जिस दिन रामलीला मैदान पर पीड़ित लड़की के मां बाप आसाराम से मिलने आये थे। जोधपुर कांड करने के बाद आसाराम अपने भक्तों को मोक्ष का मार्ग दिखाने सीधे दिल्ली ही आये थे। इसलिए अगर आसाराम यह कहते हैं कि पीड़िता और उसका परिवार उनके खिलाफ कोई अदावत कर रहा है तो आसाराम और उनकी पूरी भक्त मंडली झूठ बोल रही है। वे तो सबसे पहले उसी से शिकायत करने आये थे, जिससे उन्हें शिकायत थी। लेकिन आसाराम के अहं की शुरूआत यहीं से होती है। उस वक्त के अखबार उठाकर देखें तो कुछ अखबारों ने लिखा है कि कैसे आसाराम ने धक्के मारकर वहां से भगा दिया। आसाराम का यही वह अहंकार है जो उन्हें जेल की चारदीवारी तक लेकर गया है।
पीड़िता का परिवार आसाराम का भक्त है इसलिए जब आसाराम से पीड़िता का परिवार मिलना चाह रहा था, तब निश्चित ही उनके मन में अपने बापू जी के लिए पीड़ा और शिकायत ही रही होगी, बदले की भावना तो बिल्कुल नहीं। लेकिन जब आसाराम और उनके समर्थकों ने पीड़िता और उसके परिवार के ऐसा बुरा बर्ताव किया तो उनके सामने रामलीला मैदान से सटे कमला मार्केट थाने में जाने के अलावा और रास्ता भी क्या था? वे रामलीला मैदान से निकलकर कमला मार्केट थाने में चले गये और एफआईर की भनक लगते ही आसाराम अपने संत्संग से एक दिन पहले ही फरार हो गये।
इसके बाद भले ही आसाराम यह कहते रहे कि वे उस लड़की से मिले ही नहीं, या फिर वह तो उनके पोती जैसी है, उनके खिलाफ कोई साजिश हो रही है लेकिन रामलीला मैदान पर किया गया उनका कर्म बता रहा था कि संभवत: उन्होंने ऐसे किसी दुष्कर्म के भागी हैं जिससे वे भाग रहे हैं। इसलिए अगर उमा भारती जैसी एकाध नेता को छोड़ दें तो राजनीति, सोशल मीडिया या फिर मुख्यधारा की मीडिया दोनों ही यह स्वीकार करने को तैयार ही नहीं दिख रहे थे कि आसाराम निर्दोष भी हो सकते हैं। आमतौर पर साधु संतों के मामले में भारत का सोशल मीडिया धर्मभीरू ही नजर आता है लेकिन आसाराम के मामले में ऐसा नहीं दिखा। फेसबुक और ट्वीटर पर इस खबर के साथ ही आसाराम के खिलाफ माहौल बनने लगा था। बाकी बचा टीवी चैनलों ने पूरा किया और संसद में मामला उठाकर सांसदों ने भी आसाराम पर शिकंजा कसने का दबाव पूरा कर दिया।
इधर अगर एक एक करके लोग आसाराम के खिलाफ खड़े होते जा रहे थे तो दूसरी तरफ आसाराम की मीडिया से अदावत भी बढ़ती जा रही थी। पहले भी आसाराम मीडिया वालों पर आक्रामक होते रहे हैं और कुत्ता बिल्ली भी बोल चुके हैं लेकिन इस बार उनके समर्थकों ने एक टीवी चैनल के दो पत्रकारों को पीटकर लहूलुहान भी दिया। अपने भक्तों के बीच बापू जी के नाम से मशहूर आसाराम के वे भक्त जो कमला मार्केट थाने पहुंच गये थे प्रदर्शन करने के लिए उन्होंने भी जो नारे लगाये वे मीडिया और पुलिस के ही खिलाफ थे। रही सही कसर आसाराम की प्रवक्ता नीलम दूबे ने पूरा कर दिया और एक टीवी चैनल पर पहुंचकर उस चैनल के एंकर को खुलेआम दलाल कह दिया। यानी, इस बार भी आसाराम और उनके भक्तों की ओर से यही साबित करने की कोशिश की गई कि बापू जी निर्दोष हैं और सारा दोष मीडिया का है जो बापूजी को परेशान कर रहा है। अगर ऐसा सच मान भी लें तो इस सच के पीछे की सच्चाई क्या है?
इस बात से इंकार तो नहीं किया जा सकता कि कमोबेश एक पखवाड़े से आसाराम का मामला मीडिया का मुद्दा बना हुआ है। टेलीवीजन मीडिया के लिए इस बार आप इसे सिर्फ टीआरपी की जंग भी नहीं कह सकते और अगर मामला किसी संत से जुड़ा हो तो प्रिंट मीडिया भी थोड़ा सा संकोच करेगा। लेकिन न तो टीवी मीडिया टीआरपी की चिंता कर रहा है और न प्रिंट मीडिया संतई का कोई संकोच। आसाराम के खिलाफ मीडिया का गुस्सा साफ दिखाई दे रहा है। वह गुस्सा इसलिए है कि आसाराम का लंबा इतिहास मीडिया के खिलाफ ही रहा है। और सिर्फ मीडिया के ही खिलाफ क्यों? स्वंयभू संत आसाराम हों कि बाबा रामदेव। जिन्होंने भी देश में भगवा चोले में कोई तरक्की की है वे सीधे सीधे पूरी व्यवस्था को चुनौती देने लगते हैं। उसका कारण यह होता है कि उनके पास उन्हें चाहनेवालों की एक फौज होती है जो कई बार अपने गुरू पर अंधश्रद्धा की हद तक समर्पित हो जाते हैं। जिन्होंने रामलीला मैदान पर रामदेव का अनशन प्रदर्शन देखा होगा उन्हें याद होगा कि किस तरह से रामदेव के समर्थक मीडिया वालों को दुश्मन की तरह व्यवहार करते थे। उनकी नजर में उस वक्त मीडिया इसलिए दुश्मन थी क्योंकि वह रामदेव की प्रवक्ता नहीं थी। आसाराम और उनके भक्तों की नजर में भी मीडिया इसलिए दुश्मन है क्योंकि वह उनके प्रवक्ता की तरह व्यवहार नहीं करती है।
मीडिया की इस समझ को कुछ लोग सेकुलर समझ भी घोषित कर सकते हैं लेकिन लेकिन यह सेकुलर या कम्युनल से ज्यादा रियल और वर्चुअल के बीच का फर्क है। ऐसे साधु संतों के आस पास जो वर्चुअल दुनिया विकसित होती है वह वास्तविक दुनिया से हमेशा अलग थलग ही होती है। फिर वह हंस जी महराज रहे हों कि ओशो रजनीश। आसाराम हों कि रामदेव। कबीरपंथी संत रामपाल हों कि श्री श्री रविशंकर। इन सबको मीडिया से हमेशा ही दिक्कत होती है लेकिन मीडिया की चाहत कहीं जाती भी नहीं। इसलिए आसाराम के मामले में अगर मीडिया तटस्थ ही नहीं आसाराम के खिलाफ आक्रामक नजर आ रहा है तो प्राथमिक तौर पर उनके झूठों का पुलिंदा तो एक कारण है ही, उससे भी बड़ा एक जो दूसरा कारण है वह है ऐसे साधु संतों का अहंकार और छद्म वातावरण। वे मीडिया के मोह से मुक्त नहीं होते लेकिन अपने खिलाफ बोले गये एक शब्द को भी वे या उनके समर्थक बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। अगर ऐसे संतों को मीडिया की समझ नहीं होती तो मीडिया से भी उम्मीद करना बेकार है कि वे ऐसे संतों को समझने में अपना समय बर्बाद करेंगे। फिलहाल यह कहना तो मुश्किल है कि मीडिया के इस रुख से आखिरकार समाज फायदे में रहेगा या घाटे में लेकिन इतना तो तय है कि आसाराम के मामले में मीडिया अपना हिसाब बराबर कर रहा है। http://visfot.com