‘पेड न्यूज़’ पर मीडिया गुमसुम

electronic media-पी. के. खुराना- इस वर्ष कई राज्यों में चुनाव हुए हैं तथा कुछ राज्यों में बाकी हैं। अगले वर्ष लोकसभा के चुनाव होंगे और एक बार फिर मीडिया घराने चांदी कूटेंगे तथा संवाददाताओं और संपादकों की खोखली शान की पोल खुलेगी, यानी एक बार फिर पेड न्यूज का दौर चलेगा और मतदाता एवं पाठक मीडिया की कलाबाजियों के गवाह बनेंगे। बीते छह मई को सूचना तकनीक पर लोकसभा की स्थायी समिति ने पेड न्यूज को लेकर लोकसभा को अपनी रिपोर्ट सौंपी है लेकिन आम लोगों तक इसकी खबर नहीं पहुंची, क्योंकि मीडिया घरानों ने इस खबर को पूरी तरह से ब्लैक आउट कर दिया और इस पर किसी भी तरह की चर्चा नहीं की।
वे पत्रकार जो दुनिया भर को सदाचार की सीख देते हैं, एक रेल दुर्घटना हो जाने पर स्व. प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का उदाहरण देते हैं और किसी भी रेल दुर्घटना पर रेल मंत्री से इस्तीफे की उम्मीद करते हैं। भगवान राम और सीता का उदाहरण देकर बताते हैं कि जनमत का आदर इस हद तक होना चाहिए कि यदि राज्य का एक धोबी अपने घर में बातचीत करते हुए भी शासक पर कोई आरोप लगा दे तो सीता जी को वन भेज देना चाहिए। आदर्श समाज की ऐसी तस्वीर बनाने वाले पत्रकार पेड न्यूज पर चुप्पी साधे हुए हैं।
पेड न्यूज के कई रूप हैं। पैसे लेकर खबर छापना केवल एक रूप है। एक प्रसिद्ध अंग्रेजी दैनिक ने पेड न्यूज को एक और अभिनव रूप दिया है। इस समाचार पत्र समूह का तरीका है कि वह विज्ञापनदाता कंपनियों के विज्ञापनों के लिए पैसे के बदले में उन कंपनियों में अंशधारक बनकर भागीदारी पा लेता है और फिर उन कंपनियों के बारे में ऐसे समाचार देने लगता है, जिससे उन कंपनियों की छवि चमके और उनका मुनाफा बढ़े। इन कंपनियों का मुनाफा बढ़ने पर अंशधारकों को भी उस लाभ में हिस्सेदारी मिलती है। इस प्रक्रिया में दोहरा लाभ है। पहला, बिना नकद पैसा खर्चे इस समाचार पत्र समूह को विभिन्न विज्ञापनदाता कंपनियों में भागीदारी मिल जाती है और उन कंपनियों का लाभ बढ़ने पर लाभांश में हिस्सेदारी अलग से मिलती है।
सूचना तकनीक पर लोकसभा की स्थायी समिति की इस रिपोर्ट में कई अखबारों का नाम लेकर उनकी चर्चा की गई है। इसके अलावा कई मीडिया घराने ऐसे हैं, जिनका नाम तो नहीं लिया गया पर उनकी तरफ इशारा साफ है। बहुत से अन्य महारथियों की तरफ तो इशारा भी इसलिए नहीं किया जा सका क्योंकि पेड न्यूज में पैसे के लेन-देन का रिकार्ड नहीं रखा जाता।
समिति ने अपनी रिपोर्ट में इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया है कि सन् 2009 के लोकसभा चुनावों के समय बड़ी संख्या में समाचार पत्रों, टीवी और रेडियो चैनलों ने पेड न्यूज के माध्यम से पैसा बनाया। लेकिन इसकी रोकथाम के मुद्दे पर वे पूरी तरह खामोश हैं और यह पूरा तमाशा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर चल रहा है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय मीडिया घराने खुद अपनी आचार संहिता बनाकर इसे रोक पाने में असफल रहे हैं। समिति ने सिफारिश की है कि पेड न्यूज पर रोकथाम के लिए ज्यादा सशक्त नियामक संस्था होनी चाहिए तथा नियमों के उल्लंघन की अवस्था में जुर्माना होना चाहिए और ज्यादा कड़े दंड तथा लाइसेंस रद्द होने का प्रावधान होना चाहिए। रिपोर्ट में इस मुद्दे को न सुलझा पाने के लिए सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की भी आलोचना की गई है।
यह सच है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सहारा लेकर मीडिया घराने मनमानी कर रहे हैं और यह भी सच है कि पेड न्यूज अनैतिक प्रथा है तथा इसके रोकथाम के गंभीर प्रयासों की आवश्यकता है। यही नहीं, आदर्शवादी पत्रकारों ने भी इस मुद्दे को लेकर बहस अवश्य की है, पर इसकी रोकथाम के लिए किसी पत्रकार ने कोई गंभीर प्रयास नहीं किया, कभी इस्तीफा नहीं दिया। सेमिनारों का आयोजन करने वाले ज्यादातर पत्रकार या तो फ्रीलांसर हैं या रिटायर हो चुके हैं, यानी इस वर्ग के पत्रकारों को नौकरी गंवाने का डर नहीं है, वरना वे भी शायद सेमिनार न करते। दूसरी बात यह है कि पत्रकारों को पेड न्यूज़ के मामले से ऐतराज इसलिए ज्यादा है कि वे हलवे-मांडे के हिस्सेदार नहीं रह गए हैं और पेड न्यूज का लाभ मीडिया मालिकों को मिल रहा है तथा पत्रकार धन लाभ के सुख से वंचित हैं। सभी पत्रकार जानते हैं कि यह मुद्दा सेमिनारों और लेखों की हदों से परे निकल चुका है। सेमिनार करने या लेख लिखने से इस मुद्दे का हल होने वाला नहीं है। फिर भी कोई पत्रकार सेमिनार करने या पेड न्यूज की प्रथा के विरुद्ध लेख लिखने से आगे बढ़ने का इच्छुक नहीं है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के झंडाबरदार पत्रकार अपने मालिकों के सामने मिमियाने लगते हैं और वहां उनका सारा विरोध हवा हो जाता है। सुनहरे पिंजरे में कैद पत्रकार वर्ग अपनी ही दुनिया में मगन है।
आरोप-प्रत्यारोप को छोड़ दें तो यह भी मानना पड़ेगा कि पेड न्यूज के मुद्दे पर सिर्फ मीडिया घरानों अथवा पत्रकारों को ही दोष देना ही काफी नहीं है। व्यवसाय के हर क्षेत्र में अनैतिकता व्याप्त है, समाज का हर वर्ग भ्रष्टाचार से ग्रस्त है। इसलिए केवल समाज के किसी एक वर्ग पर अंगुली उठाना किसी समस्या का हल नहीं है, क्योंकि उसमें सिर्फ एक ही वर्ग शामिल नहीं है। लोकसभा की विभिन्न समितियों में शामिल सांसद भी चुनाव के समय पैसे देकर खबरें छपवाते हैं और तब वे इसका विरोध नहीं करते। विज्ञापनदाता कंपनियों की मर्जी के बिना कोई मीडिया घराना उसमें विज्ञापनों के भुगतान के बदले अंशधारक नहीं बन सकता, विज्ञापनदाता कंपनियां ही यदि न चाहें तो पेड न्यूज का यह नया रूप कामयाब नहीं हो सकता।
इंग्लैंड में पेड न्यूज की रोकथाम का प्रयास असफल हो चुका है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर मीडिया घरानों पर नियंत्रण की कोशिशें बेकार कर दी जाती हैं। पेड न्यूज पर रोक एक संवेदनशील मुद्दा है और इसका समाधान आसान नहीं है। लेकिन यह भी सही है कि लोकसभा के आगामी चुनावों तक यह मुद्दा गरमाया रहेगा और इसको लेकर चर्चाएं चलती रहेंगी, सेमिनार होते रहेंगे, स्याही लगती रहेगी और पेड न्यूज़ भी छपती रहेगी। तब तक, जब तक कि मीडिया घरानों के मालिक खुद ही निर्णय न ले लें कि पेड न्यूज उनके विकास के लिए हितकर नहीं है या पत्रकार लोग सक्रिय विरोध की भूमिका में न आ जाएं।
अगला साल अब ज़्यादा दूर नहीं है। यह देखना रुचिकर होगा कि पेड न्यूज से निपटने के लिए पत्रकार बंधु, प्रेस परिषद तथा विभिन्न सरकारी एजेंसियां क्या करती हैं।
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