दिल्ली शीला दीक्षित को पटखनी देकर , 28 विधायकों के बलबूते सरकार बनाकर अतिउत्साह में अरविन्द केजरीवाल ने अपनी पहले से तैयार पटकथा के आधार पर वाराणसी लोकसभा सीट से भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के खिलाफ ताल ठोंक दी है। पत्नी-बच्चों के साथ वाराणसी के दौरे पर गए केजरीवाल ने बेनियाबाग मैदान में बिलकुल “बनिया” ( क्षेत्रीय भाषा में बनिया का अर्थ बनाउ भी होता है और यूपी में बनिया को व्यापारी या दुकानदार भी कहा जाता है ) की तरह एलान किया कि मैं तैयार हूँ मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए। दिल्ली की तर्ज पर उन्होंने मोदी की उम्मीदवारी के एलान के दूसरे दिन ही कहा था कि वाराणसी की जनता चाहेगी तो मोदी के खिलाफ चुनाव लडूंगा। जनता के चाहने ना चाहने के पहले ही चर्चा के केंद्र में आने के लिए केजरीवाल चुनाव लड़ने का फैसला कर चुके थे। यही वजह है कि दिन भर दर्शन, डुबकी और रोड शो की नौटंकी के बाद बेनियाबाग मैदान में सभा में उन्होंने चुनाव लड़ने की हामी ऐसे भरी जैसे जनता ने उनसे कोई गुजारिश कि हो। की या नहीं की यह तो वही जाने या चैनल वाले लेकिन इतना जरुर है कि चैनलों पर जनता की ऐसी किसी गुजारिश का कोई फुटेज दिखा नहीं। वैसे , सौ फीसदी सच यह है कि जनता ने उनसे किसी तरह की कोई प्राथना नहीं की। अगर जनता इतनी ही केजरीवाल के सर-माथे पर होती तो वह पहले से मोदी के खिलाफ कई पेज वाला परचा छपा कर नहीं ले जाते ,जिसमे उम्मीदवारी के साथ गुजरात दौरे के वही घिसे-पिटे सवाल और अदानी-अम्बानी से रिश्ते पर कीचड उछ्लने वाली बातें दर्ज ना होती।
दरअसल, 49 दिन के दिल्ली के मुख्यमंत्री रह चुके केजरीवाल को प्रधानमंत्री बनने की इतनी जल्दी है कि वह कोई अवसर चूकना नहीं चाहते। मोदी के खिलाफ चुनाव में भिड्ने से पहले वह यूपी को समझने की भूल कर गए हैं। यह वही यूपी है जंहा विकास और धर्मनिरपेक्षता की बातें करने वाली कांग्रेस एक बार फिसली तो फिर दुबारा ढंग से खड़ी नहीं हो पाई। काशी में त्रिपुंड लगाये केजरीवाल एक अल्पसंख्यक के हांथो मुस्लिम टोपी पहनकर खुश भले हो रहे हों कि एक वोट बैंक साथआ चुका है लेकिन सच्चाई यह है कि केजरीवाल का रास्ता काशी में इतना आसान नहीं है। उनकी उम्मीदवारी के बाद जिस तरह जेल में बंद माफिया सरगना मुख़्तार अंसारी ने क़ौमी दल से बीवी का नाम वापस लेकर खुद चुनाव लड़ने की घोषणा की है उससे बहुत कुछ सम्भव है कि काशी का मुसलमान मुख़्तार के पाले में चला जाये। चुनाव में डर बढ़ गया है कि बनारसी मुसलमान कहीं वाकई में केजरी को टोपी ना पहना दे क्योंकि हिन्दुऒं-मुसलामानों की छोड़िये अंधे-बहरे-लूलों को भी इस बात का अंदाजा है कि मोदी हो या केजरी चुनाव बाद कोई नहीं दिखेगा। फिर मुख़्तार सिर्फ माफिया ही नहीं हैं उस इलाके के मुसलामानों के तारणहार भी हैं। ऐसे ही पिछले चुनाव में मुख़्तार को 185911 वोट नहीं मिल गया था। सिर्फ १८ हजार वोटों से वह हारा था। आप के साथी कहेंगे कि तब वह बसपा के उम्मीदवार थे और उसीका वोट ज्यादा था लेकिन इस बात में कोई संशय नहीं है कि मुखतार का वाराणसी में अपना मजबूत आधार है।