स्त्री : रहम की मोहताज नहीं

रीता विश्वकर्मा
जिस तरह भक्त शिरोमणि हनुमान जी को उनकी अपार-शक्तियों के बारे में बताना पड़ता था और जब लोग समय-समय पर उनका यशोगान करते थे, तब-तब बजरंगबली को कोई भी कार्य करने में हिचक नहीं होती थी, भले ही वह कितना मुश्किल कार्य रहा हो जैसे सैकड़ो मील लम्बा समुद्र पार करना हो, या फिर धवलागिर पर्वत संजीवनी बूटी समेत लाना हो…आदि। ठीक उसी तरह वर्तमान परिदृश्य में नारी को इस बात का एहसास कराने की आवश्यकता है कि वह अबला नहीं अपितु सबला हैं। स्त्री आग और ज्वाला होने के साथ-साथ शीतल जल भी है।
आदिकाल से लेकर वर्तमान तक ग्रन्थों का अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि हर स्त्री के भीतर बहुत सारी ऊर्जा और असीमित शक्तियाँ होती हैं, जिनके बारे में कई बार वो अनभिज्ञ रहती है। आज स्त्री को सिर्फ आवश्यकता है आत्मविश्वास की यदि उसने खुद के ‘बिलपावर’ को स्ट्राँग बना लिया तो कोई भी उसे रोक नहीं पाएगा। स्त्री को जरूरत है अपनी ऊर्जा, स्टैमिना, क्षमताओं को जानने-परखने की। काश! ऐसा हो जाता तो महिलाओं के साथ अभद्रता, दरिन्दगी, रेप, गैंगरेप और हत्या जैसी अप्रिय एवं दुःखद, अमानवीय घटनाओं पर काफी हद तक नियंत्रण लगता। समाज में छुपे रहने वाले दरिन्दों की विकृत मानसिकता का हर ‘सबला’ मुँह तोड़ जवाब दे सकती है, इसके लिए उसे स्वयं को पहचानना होगा। साथ ही समाज के स्त्री-पुरूष दोनों को रूढ़िवादी विचार धारा का परित्याग करना होगा।
पूरी दुनिया में आधी आबादी महिलाओं की है बावजूद इसके हजारों वर्षों की चली आ रही परम्परा बदस्तूर जारी है। सारे नियम-कानून महिलाओं पर लागू होते हैं। जितनी स्वतंत्रता लड़को को मिल रही है, उतनी लड़कियों को क्यों नहीं? बराबरी (समानता) का ढिंढोरा पीटा तो जा रहा है, लेकिन महिलाओं पर लगने वाली पाबन्दियाँ कम नहीं हो रही हैं। लड़कों जैसा जीवन यदि लड़कियाँ जीना चाहती हैं तो इन्हें नसीहतें दी जाती हैं, और इनके स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकारों की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं। उन पर पाबन्दियाँ लगाई जाती हैं। बीते महीने कश्मीर की प्रतिभाशाली लड़कियों के रॉक बैण्ड ‘परगाश’ पर प्रतिबन्ध लगाया गया। ऐसा क्यों हुआ? यह बहस का मुद्दा भले ही न बने लेकिन शोचनीय अवश्य ही है।
समाज के मुट्ठी भर रूढ़िवादी परम्परा के समर्थक अपनी नकारात्मक सोच के चलते लड़कियों की स्वतंत्रता को परम्परा विरोधी क्यों मान बैठते हैं? क्या स्त्री-पुरूष समानता के इस युग में लड़के और लड़कियों में काफी अन्तर है। क्या लड़कियाँ उतनी प्रतिभाशाली और बुद्धिमान नहीं हैं, जितना कि लड़के। वर्तमान लगभग हर क्षेत्र में लड़कियाँ अपने हुनर से लड़कों से आगे निकल चुकी हैं और यह क्रम अब भी जारी है। आवश्यकता है कि समाज का हर वर्ग जागृत हो और लड़कियों को प्रोत्साहित कर उसे आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करें। आवश्यकता है कि हर स्त्री-पुरूष अपनी लड़की संतान का उत्साहवर्धन करे उनमें आत्मविश्वास पैदा करे जिसके फलतः वे सशक्त हो सकें। दुनिया में सिर ऊँचा करके हर मुश्किल का सामना कर सकें। लड़की सन्तान के लिए बैशाखी न बनकर उन्हें अपनी परवरिश के जरिए स्वावलम्बी बनाएँ। लड़का-लड़की में डिस्क्रिमिनेशन (भेदभाव) करना छोड़ें।
गाँव-देहात से लेकर शहरी वातावरण में रहने वालों को अपनी पुरानी सोच में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। लड़कियों को चूल्हा-चौके तक ही सीमित न रखें। यह नजरिया बदलकर उन्हें शिक्षित करें। सनद लेने मात्र तक ही नहीं उन्हें घर बिठाकर शिक्षा न दें लड़कों की भाँति स्कूल/कालेज अवश्य भेजे। अब समाज में ऐसी जन-जागृति की आवश्यकता है जिससे स्त्री विरोधी, कार्यों मसलन भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा स्वमेव समाप्त हो इसके लिए कानून बनाने की आवश्यकता ही न पड़े। महिलाओं को जीने के पूरे अधिकार सम्मान पूर्वक मिलने चाहिए। जनमानस की रूढ़िवादी मानसिकता ही सबसे बड़ी वह बाधा है जो महिला सशक्तीकरण में आड़े आ रही है। महिलाएँ चूल्हा-चौका संभाले, बच्चे पैदा करें और पुरूष काम-काज पर निकलें यह सोच आखिर कब बदलेगी?
मैं जिस परिवार से हूँ वह ग्रामीण परिवेश और रूढ़िवादी सोच का कहा जा सकता है, परन्तु मैने अपनी दृढ़ इच्छा-शक्ति से उच्च शिक्षा ग्रहण किया और आज जो भी कर रही हूँ उसमें किसी का हस्तक्षेप मुझे बरदाश्त नहीं। कुछ दिनों तक माँ-बाप ने समाज का भय दिखाकर मेरे निजी जीवन और इसकी स्वतंत्रता का गला घोंटने का प्रयास किया परन्तु समय बीतने के साथ-साथ अब उन्हीं विरोधियों के हौंसले पस्त हो गए। मैं अपना जीवन अपने ढंग से जी रही हूँ, और बहुत सुकून महसूस करती हूँ। मैं बस इतना ही चाहती हूँ कि हर स्त्री (महिला) सम्मानपूर्वक जीवन जीए क्योंकि यह उसका अधिकार है।
इतना कहूँगी कि गाँवों में रहने वाले माँ-बाप अपनी लड़की संतान को चूल्हा-चौका संभालने का बोझ न देकर उन्हें भी लड़कों की तरह पढ़ाए-लिखाएं और शिक्षित बनाएँ ताकि वे स्वावलम्बी बनकर उनका नाम रौशन कर सकें। माँ-बाप द्वारा उपेक्षित लड़की संतान ‘डिप्रेसन’ से उबर ही नहीं पाएगी तब उसे कब कहाँ और कैसे आगे बढ़ने का अवसर मिलेगा। जब महिलाएँ स्वयं जागरूक होंगी तो वे समय-समय पर ज्वाला, रणचण्डी, गंगा, कावेरी, नर्मदा का स्वरूप धारण कर अपने शक्ति स्वरूपा होने का अहसास कराती रहेंगी उस विकृत समाज को जहाँ घृणित मानसिकता के लोग अपनी गिद्धदृष्टि जमाए बैठे हैं। आवश्यकता है कि स्त्री को स्वतंत्र जीवन जीने, स्वावलम्बी बनने का अवसर बखुशी दिया जाए ऐसा करके समाज के लोग उस पर कोई रहम नहीं करेंगे क्योंकि यह तो उसका मौलिक अधिकार है। न भूलें कि नारी ‘अबला’ नहीं ‘सबला’ है, किसी के रहम की मोहताज नहीं।
रीता विश्वकर्मा
सम्पादक
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