लहर होती तो…

मोहन थानवी
मोहन थानवी

दिसंबर 2013 की एक तारीख को राजस्थान विधानसभा चुनाव के तहत मतदान शांति पूर्वक संपन्न हुआ। लोकतंत्र के इस महाकुंभ के लिए अब तक के रिकॉर्ड मतदान प्रतिशत ने 2003 के आंकड़े को पीछे छोड़ दिया है। इसमें एक रिकॉर्ड यह भी कि इस बार 16 लाख से अधिक युवा मतदाताओं ने पहली बार मिले मताधिकार से अपनी सरकार चुनने की प्रक्रिया में भाग लिया। मतदान का प्रतिशत कहीं 80 प्रतिशत को पार कर गया तो कहीं 60 के आस पास रहा। कुल मिला कर मतदान के बढ़े आंकड़े को लेकर प्रत्याशियों सहित राजनीतिक क्षेत्र के जानकारों और जागरूक मतदाताओं के बड़े वर्गों ने जीत-हार के कयास लगाए। जीत हार के कयास पार्टी, प्रत्याशी दोनों के आधार पर लगाए जा रहे हैं मगर मतदान का प्रतिशत तकरीबन हर सीट के लिए कमोबेश कम ज्यादा के अंतर वाला तो है ही। यह तय है और साथ ही यह भी कि दोनों प्रमुख दलों को अपने अपने स्पष्ट बहुमत मिलने के प्रति अभी आश्वस्त होने का समय नहीं है।
इस तरह मतदाता अपने बूथ या अपने विधानसभा क्षेत्र के कुल मतदान के आधार पर अपना कयास परिणाम के करीब तक तो पहुंचा सकता है मगर इससे समूची सीटों के लिए परिणाम तक पहुंचना जल्दबाजी होगी। वजह साफ है। अधिकांश निर्वाचन क्षेत्र में प्रत्याशी की व्यक्तिगत छवि काम कर रही है तो साथ साथ राजनीतिक दल का असर भी है। कहीं सोशल इंजीनियरिंग के तहत चुनाव मैदान में उतारे गए उम्मीदवारों के साथ समाज विशेष है तो कहीं प्रमुख दलों के आलाकमान या आमुखी नेताओं के प्रभावी भाषणों, रोमांच पैदा कर देने वाले जन सैलाब के सामने ओजस्वी भाषणों, तथ्यों और कथ्यों के साथ जमीनी हकीकत बयान करने वाले वक्तव्यों के रंग भी गहरे हैं। इस कारण, यह साफ है कि मतदान प्रतिशत बढ़ा होना किसी तरह की लहर का प्रभाव नहीं है। यह भी याद रखना जरूरी है कि मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए निर्वाचन आयोग ने अपने तईं भरसक प्रयास किए। इसमें मीडिया और सामाजिक संस्थाओं के साथ साथ व्यापारी व विद्यार्थी वर्ग ने भी सहयोग किया। मतदाता का रुझान सिर्फ और सिर्फ मतगणना के साथ सामने आएगा।
मतदाता के रुझान को अपने पक्ष में करने के लिए दलों ने पिछले चुनावों के बाद से ही तैयारी कर ली और अपनी तैयारी पर कार्य भी करना आरंभ कर दिया था। विशेष रूप से चुनावों को ध्यान में रखते हुए राजनीतिक दलों के साथ साथ जन प्रतिनिधि तो पिछले करीब डेढ़ वर्ष से कमर कस चुके थे। आमजन भी चुनावी रंगत को करीब साल भर से साफ साफ देख रहा था। अब, जबकि मतदान हो चुका तब भी किसी तरह की लहर का आभास नहीं मिलता। किसी दल के पक्ष या विपक्ष में यदि लहर बनती है तो वह महसूस भी होती है। ऐसी स्थिति में यह हो सकता है कि मतदाताओं ने दलों की सोशल इंजीनियरिंग को वक्ती तौर पर अपने प्रदेश की आगामी सरकार तय करने के लिए उचित समझ कर अपने मत ईवीएम में सहेजे हों। बहरहाल राजनीतिक भविष्य ईवीएम से आठ दिसंबर को सामने आ जाएगा।
-मोहन थानवी, बीकानेर

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