मैं गाड़ी के नीचे आते आते
बच गई थी !
तब मैं छोटी थी….
और
माँ ने ये भी कहा था
आने वाले कल में
ऐसे कई हादसों से
मैं खुद को बचा लूँगी
जब मैं बड़ी हो जाऊँगी…..
पर
कहाँ बचा पाई मैं खुद को
उस हादसे से?
दानवता के उस षड्यंत्र से?
जिसने छल से
मेरे तन को, मेरे मन को
समझकर एक खिलौना
खेलकर, तोड़-मरोड़ कर
फेंक दिया उसे वहाँ,
जहां कोई रद्दी भी नहीं फेंकता !
उफ़ !
बीमार मानसिकता का शिकार
वह खुद भी,
ज़िन्दा रहने का सबब ढूँढता है !
सच तो यह है
वह मर चुका होता है…
जिसका ज़मीर ज़िन्दा नहीं !

याद आया
माँ ने ये भी कहा था
वह मर चुका होता है…
जिसका ज़मीर ज़िन्दा नहीं !
-देवी नागरानी, dnangrani@gmail.com
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति