हमरे बलमा बेईमान हमें पटीयाने आये हें… फिर आ गए चुनाव

अमित टंडन
अमित टंडन

एशियाड, ओलम्पिक्स, वर्ल्ड कप क्रिकेट, सुपर सॉकर और भारतीय राजीतिक चुनाव..? किसी परीक्षा में सवाल आ जाए कि इनमें समानता स्पष्ट करें, विद्यार्थी बेचारा क्या जवाब दे.. है भी उलझन भरी बात… मगर आसान है… इनमें समानता ये है कि ये सारे खेल कोई दो साल, कोई चार साल, कोई पांच साल में आयोजित होते हैं… रही बात असमानताओं की, तो इन खेलों और भारतीय राजनीतिक चुनावों में असमानताओं की एक लम्बी फेहरिस्त है.. मसलन हर पांच साल बाद बड़ी-बड़ी राजनीतिक टीमों के काईयाँ खिलाड़ी अपने फील्डर्स के साथ मैदान में उतरते हैं… हर टीम का कप्तान एक साथ बैटिंग करता दिखता है, और उनके फील्डर्स.. बेचारे..! गेंदें पकड़ने के लिए भागते रहते हैं… यहाँ से वहाँ.. “बेचारा” इसलिए कहा क्यूंकि जीतने वाले कप्तान को तो भारी भरकम ट्रोफी मिल जाती है, पांच साल तक कैश कराता रहे… मगर फील्डर्स को..? उन्होंने मैच के दौरान जो खाना-पीना था, खा लिया… एक-आध को छोड़ कर कप्तान को उनकी शक्ल तक याद नहीं रहती.. यानी उन्हें तो लोहे तक का नकली मैडल नसीब नहीं होता… कमाल है, यदि फील्डर्स का ऐसा हाल है, तो जो गेंदें उन्होंने अपने कप्तान के लिए बटोरी थीं, उनका क्या हाल होगा..? वैरी सिम्पल..! वही होगा जो, आज गाँव-गाँव, शहर-शहर और ढाणी-ढाणी के हर घर के लोगों का हो रहा है… शुरू से ही रिजेक्टेड गेंद की तरह पड़े हैं, आगे भी पड़े रहेंगे… मगर कल्पना कीजिये कि जैसे कुम्भ के मेले या किसी दरगाह के उर्स के लम्बे इंतज़ार के बाद जब रौनक परवान चढ़ती है, तो क्या चहल-पहल रहती है…. ऐसा ही नज़ारा गाँवों और ढाणियों में बना है.. लोगों को इंतज़ार है कि “वो” आ रहे हैं.. झंडे, बैनर, फर्रियां, पोस्टर, और भी ना जाने किन-किन ताम-झामों से गलियाँ-सड़कें और चौराहे सजाये जा रहे हैं.. जीपों पर लगे लाउड स्पीकर धोबी के भटके हुए गधे की तरह बेसुरा राग अलापते घूम रहे हैं.. जो गेंदें, यानी मतदाता जानते हैं इन सबका मतलब, वो तो उत्सुकता-अनुत्सुकता के मिले-जुले भाव लिए कश्मकश में हैं ही… मगर जो बिल्कुल अनभिज्ञ हों, वे क्या करें..? ऐसे ही एक नौसिखिये ने गाँव में पूछा -“भैया, उ सब का होइबे, कोई मेला-वेला है का..?” “अरे नाहीं रामधन, मेला नाहीं, उ इलैक्सनवा आवत है ना, ओहू की तैयारी बा..” सवाल हुआ – “भैया उ इलैक्सनवा कौन चिरिया का नाम है..?” “का हो रामधन, बहुतहु बुडबख हो यार.. इतना भी नाहीं जानत हो का…? खैर हम बताइबे तोहका… ईद का चाँद या पूनम का चाँद देखे हो कभी..? ऐसे ही सीजनल चाँद होत है उ “इलेक्सनवा का चाँद”… का समझे..? नाहीं समझे…. उ गाना सुनत रहे का -“हमरे बलमा बेईमान हमें पटियाने आये हैं, पटियाने आये हैं वोट हथियाने आये हैं..” उ का हैं ना, नेता लोगन को हर पांच बरस में दौरे करने का दौरा पडत है… बिल्कुल “ट्रेंड और सर्टिफाईड भिखारी” लगत हैं ससुरे… उ देखो रामधनवा..! हमरे गाँव में भी एक आया… आवा हो, हम तोहका दिखाई डिरामा.. उ देखो, कैसन हाथ जोर-जोर मनुहार करत रहिन, जैसे कभी मंदिर-मस्जिद के बाहिर बैठता हो… सवाल हुआ – “पर का मांगत है उ हमसे..? कछु नाहीं, बस इक ठो “ठप्पा”… रामधनवा, ई राजनीति नाम का खेल में इलेक्सन नाम का फाइनल मैच होत है… ओहू मैच मा कप्तानवा घूम-घूम दूसरन की टीम का खिलाड़ियन को आपन की टीम मा घसीटन की कोसिस करत है… जो नेता उल्लू बनाने में माहिर होत है, उ ही गधों का सरताज, यानी MLA या MP बन जात है… ओहू के बाद उ का ऐस होई गवा.. और हम लोगन हिट विकेट आउट… आवा हो रामधनवा, तोहका उ लीडरवा का भासन सुनाईबे, उहाँ रामलीला मैदान मा…. ऊ देखो का कहत है जालिम -“दूध की नदियाँ बहा देंगे..” पिछली बार भी येही कहत रहिन, का होईबे, कछु नाहीं.. हमरे गाँव की नदिया, नहर, कुआं, सबही तो सूख गया रहिन… ईहाँ तक कि हम किसान लोगन का पसीना और आंखन का आंसू भी सूख गया रहिन.. पाखंडी, ओहू पानी का इंतजाम करत नाहीं, दूध की नदिया ख़ाक बहाई देब..? देखो-देखो रामधन, बुडबख कहत है – “गरीबन को मुफत अनाज दिलाईबे, बच्चा लोगन को पाठसाला में एक टेम का खाना खिलाईबे..” मक्कार…! हमार कांदा, रोटी, नमक छीन लिया रहिन इन्हीं लोगन ने.. अब हमका झांसा देत है.. अरे..! गैया का चारन तक तो खा गया ई लोग, ओहू का बस चले तो गोबर तक भी खा जाई ससुर का नाती… हमका का मुफत अनाज देबे की बात करे है…? ओ देखो भैया का कहत है -“करप्सन मिटा देंगे..” अरे देखा हो धूर्त का रामधनवा, उ खुद ही करप्सन है, बहुतहू करप्सन है, करप्सन मा भी करप्सन करत है ससुरा.. जब पहली बार आत रहा, खादी का फटी धोती और पुराना कुर्ता पहिन, बगल में सूती झोला लटका कर आत रहा… अब देखा हो, हीरो लोगन के माफिक चसमा, अंगूठी, सोने की मोटी चेन, सिल्क के कुर्ता-पजामा पहनत है.. गांधी टोपी भी उतार कर फेंक दिया रहिन पापी.. पहले पैदल घूमत रहा, अब एयरकंडीसन मोटर में चमचा लोगन के साथ आवत है.. पहिचान मा ही नाही आवत है ससुर का नाती.. ” अरे जावा हो ओ नेता बाबू, अब तुहार दाल नाही गलने देईबे हम..” चला हो रामधनवा, हमका ईहाँ घिन आवत है, कहीं और चलत हैं…! रामधन बोला -“भईया, ई बरस हमका भी पहली बार वोटवा डालना है, मगर ई चोट्टा लोगन को वोट नाही दूंगा, किसी को वोट नाही दूंगा..” अरे नाहीं-नाहीं रामधनवा, ऐसा नाही करियो, तू आपन वोट जरूर देबे का चाही, पर कोऊ भला मानस को देबे का चाही, सोच-समझ कर देबे का चाही.. नाही तो ई बार एक और खटको होईबे – “ई मा से कोई नाहीं” वाला… का समझे, समझ गए.. अरे हमका मालूम है कि हमरे देस का “रामधनवा” बुडबख नाहीं है रे…
-अमित टंडन, अजमेर

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