नये साल पर अंदेशों की गिऱफ्त में उम्मीदें

गोपाल विजय
गोपाल विजय

नववर्ष की पूर्व संध्या पर चिंतन करते हुए इस देश के लगभग सभी सम्पादकों और बुद्धिजीवियों ने उम्मीद जतायी है कि 2015 में भारत वृद्धि और विकास के एक ऐसे रास्ते पर छलांगें भरते हुए आगे बढ़ेगा जो उसे दस साल के भीतर-भीतर यानी 2025 तक पांच खरब डालर की अर्थव्यवस्था की मंजिल तक ले जा सकता है. जाहिर है कि ऐसा तभी हो सकेगा जब अगले चार साल और फिर अलगे पांच साल तक हमारी आर्थिक वृद्धि नौ से लेकर ग्यारह फीसदी की दर से हो. इन तमाम लेखकों और विश्लेषकों ने यह ऐतिहासिक सफ़र तय करने की ज़िम्मेदारी जिस शख़्स को थमायी है उसका नाम नरेंद्र मोदी है और उनकी निगाह में जो राजनीतिक शक्ति यह काम करेगी उसका नाम भारतीय जनता पार्टी है. दिलचस्प बात यह है कि आशाओं से धड़कते हुए इस लेखन के हर वाक्य के भीतर किंतु-परंतु, अंदेशों और दुष्चिंताओं की एक अदृश्य धारा भी बह रही है. इन तमाम लोगों को एक अनकहा शक भी सता रहा है. और, इस संदेह के पीछे पिछले सात महीनों के उस शुरुआती कार्यकाल का अनुभव है जिसे मोदी, भाजपा और उनकी सरकार के पहले नमूने की तरह समझा जा सकता है. ध्यान रहे कि ये तमाम समीक्षक नेहरू युग के साथ चिपके रहने वाले अतीतजीवी कांग्रेसपरस्त वामपंथी नहीं हैं. ये वे लोग हैं जिन्होंने पिछला पूरा साल नरेंद्र मोदी का बेहिचक समर्थन करते हुए बिताया है.

सितार बजाने से पहले रावणहत्थे की खुर्राट खूँटियों को देर तक कसना पड़ता है. ऐसा न करने पर सितार की आवाज़ में खनक नहीं आती. ये सात महीने खूँटियाँ कसने के माने जा सकते हैं. इस दौरान मोदी ने तीन बड़े कदम उठाये. मध्यवर्ग से नीचे की सतह पर रह रहे करोड़ों लोगों को वित्तीय जीवन की मुख्य धार में लाने के लिए महत्त्वाकांक्षी ‘जन-धन योजना’ शुरू की, भारत को कारखाना आधारित उत्पादन के विराट केंद्र में बदलने के लिए ‘मेक इन इण्डिया’ जैसी पहलकदमी ली और गांवों में बसने वाले देश को शहरों का देश बनाने की भूमिका बांधने के लिए ‘स्वच्छ भारत मुहिम’ प्रारम्भ की. पहले क़दम का मक़सद है भविष्य में होने वाले विकास का लाभ सबको पहुंचाने का आधार तैयार करना, दूसरे कदम का उद्देश्य है बड़े पैमाने पर रोज़गार पैदा करना और तीसरा क़दम भारत को निकट भविष्य में सौ स्मार्ट सिटी वाले देश में परिवर्तित करने के लिए उठाया गया है. सरकार की समझ यह है कि अगर ये तीनों काम सफलतापूर्वक अंजाम दिये जा सके तो नये कानून बनाने और पुराने कानूनों में संशोधन करके एक ऐसा नीतिविषयक ढांचा खड़ा किया जा सकता है जिससे भारत उत्पादन और व्यापार की जन्नत में बदल जायेगा. इस जन्नत में समृद्धि की नियामतें बरसेंगीं और उन नियामतों का फायदा मुट्ठी भर लोगों को होने के बजाय ज़्यादा से ज़्यादा भारतवासियों तक पहुंचेगा और मोदी सरकार अपने चुनावी नारे के मुताबिक सबका विकास करते हुए सबको साथ लेकर चल सकेगी.

सवाल यह है कि इस सब के बावजूद अंदेशों और दुष्चिंताओं ने मोदी समर्थक बुद्धिजीवियों को क्यों परेशान कर रखा है? पहली नज़र में इसके दो कारण हैं. पहला, इन लोगों को दिख रहा है कि खूंटियां कसने की यह प्रक्रिया बिना किसी ठोस, विस्तृत और दूरगामी योजना के शुरू कर दी गयी है. ये तीनों कदम प्रतीकात्मक किस्म के हैं जिनका नतीजा राजनीतिक प्रचार और ब्रांडिंग में तो निकला है पर वास्तव में वह आधार तैयार नहीं हुआ है जिसकी ज़रूरत थी. इसीलिए सात महीने बाद स्थिति यह है कि कुल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के तौर पर अधिसंरचनात्मक निवेश छह फीसदी पर थमा हुआ है, पब्लिक प्रायवेट पार्टनरशिप का मॉडल टूटा-फूटा कोने में पड़ा है, न विदेशों से कोई निवेश आ रहा है और न घरेलू पूंजी से निवेश निकल रहा है. अर्थव्यवस्था एक पुरानी कार की तरह है जिसकी मरम्मत करने के दावे तो किये जा रहे हैं पर उस जमी गर्द साफ करने की शुरुआत अभी नहीं हुई है. दूसरा, देश को उत्पादन और व्यापार का स्वर्ग बनाने के रास्ते में आने वाली सबसे चिंताजनक रुकावटों का स्रोत मोदी सरकार के बाहर न हो कर उसके भीतर है. मोदी की पार्टी दो तरह के दक्षिणपंथों में बंट गयी है. एक है आर्थिक दक्षिणपंथ और दूसरा है सांस्कृतिक दक्षिणपंथ. आर्थिक दक्षिणपंथ बाज़ारवादी सुधारों का पैरोकार है, लेकिन सांस्कृतिक दक्षिणपंथ लव जिहाद और घर वापसी जैसी मुहिमें चला कर उसे एक कदम भी आगे नहीं बढ़ने दे रहा है. सांस्कृतिक दक्षिणपंथ की कार्रवाइयों ने ही मोदी सरकार के विरोधियों के हाथों में वे पत्थर थमाये हैं जो लोकसभा और राज्यसभा के साथ-साथ मीडिया मंचों पर होने वाली बहसों में सरकार पर बरस रहे हैं. मोदी सरकार इस आर्थिक सुधारों का पैकेज सांस्कृतिक दक्षिणपंथ के गले उतारने में नाकाम है. इसीलिये नये कानून बनाने का काम अध्यादेशों के रास्ते किया जा रहा है जो दूरगामी नज़रिये से मज़बूती नहीं बल्कि कमज़ोरी की तरफ इशारा करता है.
-गोपाल विजय

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