राजस्थान में पंचायत राज संस्थाओं के चुनाव में शिक्षा की अनिवार्यता लागू कर भाजपा सरकार ने मुसीबत मोल ले ली है। पहले चरण के चुनाव के लिए 16 जनवरी को प्रदेशभर में मतदान होना है, जबकि 15 जनवरी को हाईकोर्ट में शिक्षा की अनिवार्यता पर निर्णय होना है। इस मुद्दे पर दो दौर की बहस हो चुकी है। मामले की सुनवाई कार्यवाहक चीफ जस्टिस सुनील अंबवानी और जस्टिस प्रकाश गुप्ता की खंडपीठ कर रही है। हालांकि चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के बाद रोक लगना मुश्किल है, लेकिन सरकार के महाअधिवक्ता नरपतमत लोढ़ा ने सरकार की ओर से कहा है कि चुनाव के बाद भी यदि कोर्ट का फैसला शिक्षा की अनिवार्यता के खिलाफ आता है तो चुनाव को रद्द कर दिया जाएगा। यानि जो व्यक्ति वार्ड पंच, सरपंच, प्रधान, जिला परिषद सदस्य, पंचायत समिति सदस्य तथा जिला प्रमुख बनें हैं वे सब बेकार हो जाएंगे। लोढ़ा ने कोर्ट को सरकार की ओर से भरोसा दिलाया है कि फैसले का पूर्ण पालन किया जाएगा। असल में लोढ़ा को यह वायदा, तब करना पड़ा, जब शिक्षा की अनिवार्यता लागू करने पर स्वयं जस्टिस अंबवानी ने तीखे सवाल किए। अंबवानी ने जानना चाहा कि थोड़े ही दिन पहले जब 46 निकायों के चुनाव हुए थे, तब इस नियम को लागू क्यों नहीं किया? जबकि गांवों के मुकाबले शहरों में शिक्षा ज्यादा जरूरी है। फिर शिक्षा की अनिवार्यता पंचायत चुनाव में ही क्यों? ऐसी व्यवस्था विधानसभा और लोकसभा में क्यों नहीं? ऐसे तीखे सवालों के बीच ही याचिका दायर करने वाली ग्रामीण महिला नौरती देवी की वकील इन्द्रा जयसिंह ने कहा कि राजस्थान विधानसभा में 23 विधायक ऐसे हैं जो दसवीं पास भी नहीं है, जबकि यहां की सरकार ने जिला परिषद और पंचायत समिति के सदस्य के लिए 10वीं तक शिक्षित होना अनिवार्य कर दिया है। सरपंच के लिए पाचवीं पास होना जरूरी है। पंचायत राज की मंशा ग्रामीणों को मजबूत करना है, जबकि इस कानून से ग्रामीण अपने लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित होंगे। याचिकाकर्ता नौरती देवी वर्तमानमें सरपंच भी हैं और अनपढ़ होने बाद भी पंचायत का कार्य अच्छी तरह किया है, इसके लिए नौरती को कई अवार्ड भी मिले हैं। नौरती देवी की याचिका दायर करवाने में पीयूसीएल की महासचिव कविता श्रीवास्तव, सूचना के अधिकार कानून की प्रणेता अरुणा राय जैसी प्रभावशाली महिलाएं सक्रिय हैं। देखना है कि 15 जनवरी को चीफ जस्टिस वाली खंडपीठ क्या निर्णय देती है। भले फिलहाल रोक नहीं लगे, लेकिन कोर्ट का फैसला भाजपा सरकार और सीएम वसुंधरा राजे के लिए राहत भरा नहीं हेागा, क्योंकि सरकार ने जिस हड़बड़ी में इस नियम को अध्यादेश के जरिए लागू किया है, वह तर्क संगत नहीं माना जा सकता। जबकि नवम्बर तक विधानसभा का सत्र चला, तब विधेयक को सदन में क्यों नहीं रखा गया? इतना ही नहीं मंत्रिमंडल की बैठक के बजाए सर्कूलर के जरिए मंत्रियों से सहमति ली गई। जहां तक राज्यपाल की भूमिका का सवाल है तो कल्याण सिंह को राज्यपाल बनाया ही इसलिए गया, ताकि अध्यादेश पर सिर्फ हस्ताक्षर कर सकें।
-(एस.पी.मित्तल)(spmittal.blogspot.in)