स्वाइन फ्लू के वायरस

रास बिहारी गौड
रास बिहारी गौड

स्वाइन फ्लू के आंकड़े रोज समाचारो में ऐसे बताये जा रहे है गोया आंकड़े ना हुए चुनावी सर्वेक्षण हो गए। आज मृतको की संख्या 200 पार,आज मौत ने 500 का अंक छुआ, राजस्थान गुजरात ने दूसरे समीपवर्ती राज्यो को पछाड़ा। लोग भी चटकारे ले ले कर ऐसी खबरों को पोस्टमार्टम कर रहे हैं। कोई कह रहा है कि यार हमारी तरफ तो फ्लू अभी तक नहीं आया जबकि मोल्ल्ले में आधा दर्जन सीनियर सिटिज़न यमलोक का वीसा लेने को तैयार बैठे हैं। कोई कह रहा है ,’यार फ्लू के आने से हमारी कॉलोनी में एक विशेष किस्म की एकता आई है,लोग बीमारी की संभावना से ही एक दूसरे की कुशलक्षेम पूछ रहे हैं। ‘तो कोई कह रहा है,’यार कमबख्त फ्लू के आतंक ने घरो में दीवार खड़ी कर दी,कोई सीधे मुँह बात नही कर रहा है,कहते हैं छूत को रोग है। वैसे ही चेहरा छुपाकर जीने का चलन समाज में सम्मान पा चूका है अब ये मुँह ढक कर बात करने की तहजीब कहाँ ले लाएगी।’ कुछ ज्ञानी इसमें राजनीति भी ठुस रहे हैं। किसी का कहना है कि कांग्रेस की असल कमजोरी की वजह यही फ्लू है जो वंशानुगत फैलाव के कारण पूरी पार्टी को अपनी चपेट में लील रहा है। कुछ महानुभाव मानते है कि केजरीवाल की खांसी से निकले वायरस से भाजपा स्वाइन फ्लू से ग्रस्त हो गई है ।चलो जो है,सो है,पर सबसे ज्यादा चांदी उन रायचंदो की है जो गाहे-बगाहे हर विषय पर अपनी एक्सपर्ट राय परोसते हैं।टोने-टोटको से लेकर देशी विदेशी नुस्खे ऐसे बाँटते घूम रहे हैं ,जैसे अपनी बेटी की शादी के पीले चावल बाँट रहे हों।
इन सबके बीच हमारी सरकारें अपने आकड़ों को दुरुस्त कर रही हैं इत्मीनान से कुछ ज्यादा जरुरी कामो में व्यस्त हैं, मसलन जन- धन -योजना में कितने खाते खुल रहे हैं, या आगामी चुनावो के लिए कौनसा मुद्दा नया हो सकता है, या निवेश के चक्कर में कौन नया ग्राहक बन सकता है,वगैरह-वगैरह।सबसे बड़ी बात इस बार सरकार जानती है ये फ्लू संक्रामक और जानलेवा है अतः इसकी चिंता या चर्चा करने पर खुद की जान पर भी बन सकती है। पिछली सरकार फ्री दवाओ के चक्कर में खुद फ्री हो गई ,इसलिए अब सरकारें समझ गयी हैं कि मरज और मरीज को अपने हाल पर रहने दो ।निपट गया तो वोट देने नहीं आएगा,बच गया तो वैसे ही नहीं दे पायेगा।मतलब साफ़ है वोट देकर सरकार बनवाने वालो का ख्याल सरकार की पहली प्राथमिकता है ।इन बीमारियो के चलते वे बीमार डाक्टर पनप गए जो फ्री दवा की चपेट में थे,उन दवा कम्पनियो से वापस रिश्ते मधुर बन गए जो चुनावों में चन्दा देकर लोकतंत्र को बचाती हैं ।अब आप ही बताओ लोक की कीमत पर अगर लोकतंत्र जिन्दा है तो कौन सा मंहगा सौदा है।
फिलहाल तो फ्लू से बचने के लिए हम भी आयुर्वेद का कडुया काडा पी रहे हैं या फिर कपूर की पुड़िया जेब में रख कर घूम रहे हैं, लेकिन सोचते हैं मौसम बदलने के बाद शायद स्वाइन फ्लू के वायरस हम पर रहम खा लें, परन्तु राजनैतिक फ्लू के वायरस तो अपना मौसम कभी बदलते ही नहीं हैं इसलिए इनसे बचना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
रास बिहारी गौड़

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