पारिवारिक मामलों का जिक्र सार्वजनिक तौर पर नहीं होना चाहिए और शादी-ब्याह के मुकदमों की सार्वजनिक चर्चा खासकर उनके प्रकाशन पर रोक भी है परंतु यह समाज में आई विसंगति या कहें विद्रूपता का एक ऐसा जीवंत उदाहरण है कि जिक्र किए बगैर रहा भी नहीं जा सकता। पिछले दिनों एक पति-पत्नी अदालत की दहलीज पर जा पहुंचे। इसमें नया क्या है ? कुछ भी तो नहीं! माहौल में इतना बदलाव आ गया कि आजकल यह होती-बीतती बात मानी जाती है, परंतु इतनी होती-बीतती होगी यह नहीं सोचा था। दोनों पति-पत्नी बुजुर्ग थे। उम्र रही होगी 75-80 के बीच। दोनों चाहते थे कि अदाल रजामंदी से उनका तलाक कर दे। जज-वकील और अदालत में मौजूद बाकी लोग भी चकरा गए। दोनों उम्र के उस पड़ाव पर थे जहां भगवान खुद ही दो-तीन साल में उन्हें अलग करने जा रहा था। जिंदगी के तीस-चालीस-पचास साल साथ रहने के बाद अब बाकी के तीन-चार-पांच साल भी उन्हें सहन नहीं। परदादी या परनानी उस उम्रदराज महिला से जब जज साहब ने कुछ पूछना चाहा तो पता लगा कि उनकी आंखों की रोशनी और कानों के सुनने की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है। परंतु दोनों को यह अच्छी समझ थी कि किसलिए अदालत आए हैं। जिस उम्र में उन्हें अपने पोते-पोतियों, नवासे-नवासियों का नसीहतें देनी चाहिए। उनके घर संभालने चाहिए। उस उम्र में उन्हें यह जिद या कहें सनक सवार है। इस अजीबोगरीब सामाजिक हादसे की डगर और मुकाम क्या होगा उपर वाला ही जाने। तो यही होती है वह रात जिसकी कोई सुबह नहीं होती!
-राजेन्द्र हाड़ा