युवा कवयित्री भारती चंदवानी की ताजा रचना

भारती चंदवानी
भारती चंदवानी
समय एक नहीं रहता कभी,
समय भूत है, समय भविष्य है
और समय वर्तमान भी है।
समय रुकता नहीं है कभी,
समय एक अविरल नदी भी है।
पीछे छोड़ जाती तमाम अवशेष,और इन अवशेषों में
कैद गहरी स्मृतियाँ…
जो खुलती ही जाती है,
जैसे समय खोलता है
नन्हे शिशु की बंद मुठ्ठियाँ…
स्मृतियाँ भटकती है किसी
प्यासे चमकादर सी,
अतीत की भूतियां हवेलियों से
वर्तमान के महलों में…
स्मृतियाँ नहीं आती वष में,
न किसी तांत्रिक के न किसी अगोरी की चिमटी से,
कमबख्त मोहल्ले का सबसे
काबिल हकीम भी
घुटने टेक देता है।
एक स्याह रात धधकती रहती है स्मृतियों के अंगार में,
रात काली बिल्ली हो जाती है
दिखती है तो सिर्फ स्मृतियाँ
उसकी चमकती आँखों सी… पलकें अब झपकती नहीं है,
सवेरे के इन्तजार में,
झरोखे से आती पहली रश्मि में,
स्मृतियाँ अब कही ओज़ल हो जाती है एक समय के लिए,
जैसे बाहर कोई ओस की बूँद
पत्ती से फिसलकर अंतिम छोड़ तक पहुँचते पहुँचते
वाष्पित हो जाती है।
रात अब भूत हो जाती है,
समय वर्तमान में खड़ा कर देता है
धकेलने को भविष्य में
फिर से भूत बन जाने के लिए,
कुछ नयी स्मृतियों के साथ…

भारती चंदवानी

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