अभिनंदन के अर्थ…

गौरव अवस्थी
गौरव अवस्थी
82 वर्ष बाद एक अभिनंदन ग्रंथ पाठकों के हाथ में फिर है। इसका नाम है ‘द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ’। अपने समय की प्रतिष्ठित हिन्दी सेवी संस्था काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने यह ग्रंथ हिन्दी के प्रथम आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्मान में छापा था। यह वही महावीर प्रसाद द्विवेदी हैं जिन्होने भारतेंदु हरिश्चंद्र की बनाई डगर में उग आईं झाड़-झंखाड़ साफ की। बोलियों में बंटी हिन्दी को व्याकरण सम्मत बनाया और एकरूप देकर हिन्दी भाषी समाज के लिए एक लंबा-चौड़ा साफ-सुथरा रास्ता बनाया। बिलकुल व्ैासा जैसे आजकल फोर-सिक्स लेन के हाइवे सुगम यातायात की दृष्टि से बन रहे हैं। इन सरपट रास्तों पर चलकर न जाने कितने साहित्यकार और कवि भारतीय ही नहीं विदेश में भी प्रतिष्ठा पाकर देश को गौरवान्वित कर सके। नाम से अर्थ निकालने की वर्तमान परंपरा में पहली नजर में यही लगता है कि सिवाए महावीर प्रसाद की ‘प्रशस्ति’ के इस ग्रंथ में कुछ और मिलना मुश्किल होगा लेकिन ऐसा सोचने वालों को यह ग्रंथ निराश ही नहंी करता है बल्कि आठ-दस दशक पहले समाज और उसकी विविधिता को भी प्रतिबिंबित करता है।
नाम के विपरीत इस ग्रंथ से उर्दू क्यों कर पैदा हुई? के बारे में जान सकते हैं। यह ग्रंथ। जैन धर्म को गहराई से जानने की समझ भी बढ़ाने वाला है। इसमें ‘रस मीमांसा’ के रस का स्वाद भी है और तुलसीदास व महाराष्ट्र के समर्थ स्वामी रामदास का तुलनात्मक अध्ययन भी। प्राचीन अरबी कविता पर भी दृष्टि है और भूमि की ‘पादावर्त्त’ नामक प्राचीन माप से संबंधित निबंध भी। उस समय के प्रसिद्ध चित्रकार नंदलाल बोस के चित्रों से सुसज्जित इस ग्रंथ की कलात्मकता भी अपने समय की ‘तीक्ष्ण दृष्टि’ को प्रमाणित करती चलती है। यह भी बहुत आश्चर्यकारी है कि द्विवेदी जी के व्यक्तित्व-कृतित्व पर रोशनी डालने वाले लेख ग्रंथ के सबसे पिछले भाग में समाहित हैं। ग्रंथ के लिए तब कागज ब्रिटेन से मंगाया गया था और आचार्य के 69वें वर्ष को देखते हुए इसमें 69 लेख शामिल करने के निर्णय का उल्लेख भी संपादन करने वाले आचार्य शिवपूजन सहाय की निजी नोटबुक में दर्ज है।
कहने को यह द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ है। बहाना महावीर प्रसाद के अभिनंदन का है लेकिन उस समय की संस्थाओं और संस्थाओं जैसे व्यक्तित्व वाले लेखकों के भांति-भांति के निबंधों में लक्ष्य सिर्फ एक ही दिखता है कि कैसे अपने हिन्दी भाषी समाज को दूसरे अन्य विकसित समाजों के स्तर पर ले आया जा सके। करीब छह सौ पृष्ठ वाला यह गं्रथ साबित करता है कि सौ वर्ष पहले के हमारे समाज (जिसमें लेखक, साहित्यकार, इतिहासकार, भूगोलविद्, अर्थशास्त्री आदि-आदि.. सब शामिल हैं) में अभिनंदन के मायने क्या थे। दृष्टि कितनी साफ थी। सोच कितनी सकारात्मक थी। हिन्दी के किसी साहित्यकार के सम्मान में प्रकाशित यह ग्रंथ अभिनंदन का ‘मानक और ज्ञान ग्रंथ’ है। यह एक ऐसी धरोहर है जो हर वर्ग के पाठक की पैतृक संपत्ति है और वह इसका उत्तराधिकारी।
अभिनंदन के नाम पर आजकल अपना ‘कीर्ति गान’ कराने वालों के लिए भी यह अभिनंदन ग्रंथ एक आईना है। इस आइने में झांककर यह समझा जा सकता है कि किस तरह व्यक्ति स्वयं, समाज और संस्थाएं अपने ‘स्व’ को ताख पर रखकर समाज के लिए सोचें, करें…खुद आगे बढ़ें और समाज को भी आगे बढ़ाने के रास्ते देखें व दिखाएं…।
अभिप्राय यह कि यह केवल नाम नहीं बल्कि समाज के काम आने वाला अभिनंदन है। अगर आज समाज ऐसे और इस रूप के ‘अभिनंदनों’ का चलन अपने हाथ में ला सके तो सरकारी सम्मान पाने की बढ़ती प्रवृत्ति अपने आप अंकुश में रहेगी और तब लौटाने का कोई बहाना या सिलसिला भी किसी के पास न होगा।
गौरव अवस्थी
रायबरेली
09415034340

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