लेकिन अपने आसपास के माहोल देखने समझने का समय ‘घट’ गया है। जनसख्या वृद्धि के साथ साथ ही आदमी का दायरा स्वयं या परिवार की देखरेख मे सिमटने लग रहा है। परिवार भी निजी कारणों से एकल होने लगे है। इसीसे गुंडा तत्वों का हौसला बढ़ा है। मूल कारण यह की, जनता की जागरूकता का दायरा सिमित हो रहा है।और लोग अपने कामों से ही निजात नहीं पा रहे। ऐसे में कौन कैसे और किसका किस तरह से साथ निबाहें।यही बड़ा सवाल है आज सबके सामने मुंह बाए खड़ा है ?
सब्र है तो बस इतना कि, गुनाहगार पकड़ मे आरहे हैं। देश में बढ़ती हिंसा,चोरी, लूट, भृष्टाचार अपहरण, आतंकवाद और बलात्कार जैसे ख़तरनाक हिंसक अपराधो से निपटने के लिए हमें जन एकता, के लिए आपसी भाईचारे के बल पर भागीदारी ज्यादा से ज्यादा यानि और ज्यादा बढानी होगी और रहना होगा ज्यादा चौकस । सारा इलाज इसी मे समाया है।
यूं भी आज का दिन त्योंहाऱो का गुलदस्ता लेकर आया है। देश भर मे मकर संक्रांति, लोहड़ी और दक्षिणी हिस्से के पावन पर्व पोंगल और बिहार के ‘खिचड़ी’ नाम से पहचाने जाने वाले इन त्योहारों की एक अलग ही रौनक होती है। लोग खुशिया बांटते हैं एक दूजे के लिए। इस मौके पर ‘पतंगों’ की उड़ान भी देखने लायक होती है।
मौकाए दस्तूर भी है,तो आईये इन बेजुबान रंगीन पतंगों ही से कुछ सीख लें आज अपने लिए -किसीने कहा है और कुछ हमने जोड़ा है —
यूं तो हवा के रुख को समझती हैं पतंगें,
फिर भी बुरे हालात से, लड़ती है पतगें ।
उम्मीद के धागे से ही बढतीं है पतंगें,
गिरतीं हैं सम्भलती हैं , मचलती हैं पतगें ।
बेखौफ तमन्नाओं सी, उड़ती हैं पतंगें,
त्योंहार जब आए,आपसी मेल जगातीं हैं पतगे।
यारों पतंगो का कोई एक आकार नहीं होता ,
खुले आसमां में फिर फिर ठिकाना ढूंढती पतंगे।
परिन्दो को जब घायल करता, ‘मांझा’ इनका,
कटकर गिरते पड़ते, खुद आंसू पीती है पतंगे।
उड़ान हौसलों की जब जब ये भरती हैं,
रंग बिरंगे मजहबी दुआ सी, गुनगुनातीं है पतंगें।
बड़ी शिद्दत से पाई है, समझ इन्होंने,
दिन चाहे कोई सा हो, शान से मुस्काई है पतगें।
बेखोफ हैं, पक्का भरोसा है इनका अपना,
इसीसे खुली किताब सी, सामने आतीं है पतगें।
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–शमेन्द्र जड़वाल .