मैं प्रोषिता विकल हुँ आज प्रासाद में
पक्ष्य झुकी हुई है त्रलोक्य के अरदास में
पक्ष्य सिक्त वारी से,अनायास बह जाते दृगम्बु
व्रजादपि हो जाता तब उर,नहीं सम्भाल पाते शम्भु
जेहि छिन झाँई आ जाती प्रिय की नयनों में
निशा कुहुकिन बन छलती मुझको सपनों में
खिन्न हो दृगयुगल उद्धता उत्ताप से भर जाते है
पिय की सुरति में उदिृग्न मैं विरहविधुरा
परिन्दो से बतियाती हुँ
मुड़ेर पर अटन कर-कर अपनी म्लानताए सुनाती हुँ
रिश्ते के प्रेरे उद्भांत करते मुझको सद्म में
जाओ प्रियतम को मेरा संदेश सुनाओ
संपोषित तुम हो जीवन के यह बतादो
निष्ठुर प्रिय बैखरी सुनने को कर्ण मेरे तरस रहे
जीवन जीने को शेष कितने वर्ष रहे
सिताब पधारों उर की सौरभीला बन श्रीखण्ड़ आलय मे
नालम्बा हो जिंदगी बन्द हो गई ताले में ।।
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होली के पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनाये
– उर्मिला फुलवरिया
पाली मारवाड़ ( राजस्थान )
1 thought on “” विरहविधुरा””
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बहुत सुंदर अभिव्यक्ति