राम के नाम पर राजनीति करने वालो के लिए भीषण विरोधाभासी समय है। उन्हें अपनी सोच,दृष्टिऔर विचारधारा के भगवे रंग पर नीला पोस्टर चढ़ा कर उस चित्र पर प्रणाम करने को विवश होना पड़ रहा है ,जिसे
स्वीकारना अपनी वैचारिक पराजय को स्वीकारने के समान है।
मगर राजनीति है,जो करवाये करना ही पड़ता है। मुंह से अम्बेडकर का नाम लेने की मज़बूरी है। मन में छिपे राम में तड़प रहे हैं। मुंह में आंबेडकर और मन में राम मिलकर कैसा डिस्को रच रहे है,उसके कुछ उदाहरण पिछले दिनों सरकारीनुमा कार्यक्रमो में देखने को मिले।
“राम तो सब को साथ लेकर चलते थे इसलिए उन्होने शबरी के झूठे बेर खाये ।”
“राम के लिये सेतु बनाने वालो में बन्दर,भालूऔर आदिवासी सब शामिल थे।’
“राम ने धोबी के वचन सुन सीता का परित्याग कर दिया।”
कृपानिधान की इतनी बड़ी कृपाओं को भी नही मानने वाले अम्बेडकर शायद बेवजह ही छुआछूत और जातिवाद का प्रश्न उठाकर हिन्दू धर्म को लांछित कर रहे थे। हिन्दू धर्म में तो समरसता के ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं।
यह भी ज्ञात हुआ है कि मनुस्मृति को जलाने का विचार भी अम्बेडकर की मौलिक सोच नही थी।यह तो उन्हें एक “ब्राह्मण”सहस्त्रबुद्धे ने सुझाया था।(सही है दलित के मस्तिष्क में ऐसा मौलिक विचार कहा से आएगा)
“अम्बेडकर बहुत बड़े राष्ट्रवादी थे ,इसलिए उन्होंने वो धर्म चुना जो कि भारत में जन्मा था।वो देश के विरुद्ग जा ही नही सकते थे।” ऐसे महान वक्तव्यों को प्रामाणिकता से देने वालो से अगर कोई ये पूछ बैठे कि उन्होंने हिन्दू धर्म का त्याग क्यों किया? उत्तर देने में मन में राम की तड़प फिर बढ जायेगी।
अम्बेडकर जयंती मनाने के लिए जुटाए जा रहे कार्यकर्ताओं की भीड़ मन ही मन आरक्षण के लिए कोसते हुए उनके चित्र को माला चढ़ा रही है।उस चित्र को छू लेने के बाद कार्यकर्त्ता घर जाकर नहाये हों तो भी कोई आश्चर्य चकित होने की बात नही है।