हकीकत

urmilaएक राही जीवन राह में अवतीर्ण हुआ
सड़क का हर रास्ता जहां में परिवर्तित हुआ ।
सुरम्य वितान वसित थे जहाँ कभी
वहाँ टूटी झोपड़ियों के टाट लटक रहे थे अभी ।
नंगे बच्चे भूख से बिलख रहे
माँ की ममता के शोले थे दहक रहे ।
व्याकुलता हिय की बरबस मुँह पर आकर रूक जाती
भूखमरी नग्न ताण्ड़व में मदमस्त हो रम जाती ।
अकस्मात चक्षुओं से अश्रुधारा बह जाती
मानव की वह करूण व्यथा भाव मुखरित हो जाती ।
माँओं का सुहाग मदहोशित था मधुशाला में
अपने अरमानो को समर्पित कर रहीं थी ज्वाला में ।
दहकते थे अंगारे शोले से थे भड़क रहे
पति पीड़न से दुख दर्द के घन घनघोर कड़क रहे ।
सँकरी झुग्गी झोंपड़ियाँ थी अस्त -व्यस्त
तेज धूप से घर के लोग सभी थे त्रस्त ।
भीषण गर्मी से बदन धूप से था नहा रहा
लू के थपेड़ों से शरीर को झुलसाते हुए जा रहा ।
दलदल कीचड़ का था साम्राज्य व्याप्त
एक -एक बून्द नीर हेतु इंसा थे अतृप्त ।
रोटी की थी बनी हुई मुमुषा
कराल मरघट न बने यह थी आकांक्षा ।
कुटिल मानव,विकराल चाले
सच्चाई के मुँह पर पड़े हुए हैं ताले ।
वसन जर -जर हो गए झाँक रहा उसमें बदन
चीख -चीख कहता भ्रष्टाचार ने हमारा किया यह हश्न ।
आवाम की गूँज चीख-चीख कह रही
बेईमानों को अफसर शाही की सह रही ।
चारों और महामारी का फैला हुआ है प्रकोप
हर शख्स के मस्तक बेईमानी का लगा हुआ है आरोप ।
टूट गया खुशहाल भारत का यह स्वप्न
हृदय विदारक ध्वनि का पल-पल हो रहा श्रवण ।
प्रदूषण फैला हुआ था प्रदूषित वायु
दमघोटू इस जहर से इंसा की घटती आयु ।
कराल काल सा मुँह फैलाए खड़ा दाये बाये
आधुनिक सर्प
भुखमरी आतंक हिंसा का जहर उगलता यह नृप।
भाई-भाई की निगाहें तनी हुई
खून की प्यास सी बनी हुई ।।
तव्वसुर खो गया पुहुप का
मर गया अस्तित्व उस भ्रमर का ।
वृक्षों से आच्छादित थे जो कभी उपवन
मदहोशित करते थे जहां को यह मधुवन ।
सुरपुर में पदासीन थे कभी सुमन
सुरमणी अप्सरा सा प्रतीत होता था भुवन ।
ढ़ह गया वो सौन्दर्य उस रमणी का
बिछड़ गया साहिल उस तरणी का ।
नीरवता सन्नाटा चीर रहा जहन को
कलुषित कलह ध्वस्त कर रहा तन मन को ।
विलुप्त खेत खलिहान ,नद पर अवतीर्ण हुए आवास
इस सभ्यता ने संयुक्त परिवार को दे दिया वनवास ।
इस युग में मानव मूल्य बन पड़े जंजाल
मानवता को प्रतिष्ठित करे नहीं किसी की मजाल ।
जमाखोरी ने लुट लिया सुकून
पत्थर में वसित रह गया ईश्वर सगुण ।
पूरित थे कभी निर्झर प्यार नीर से
जहां कायल था प्यार तीर से ।
रह गया निर्झर बस अब चट्टान धीर
वातायन के झोंके बैचेन हो देख रहे अधीर ।
भव्य नगर बुनियाद खोखली
पापी जनता हैं मोखली ।
बन्द डिब्बों में बू आती अब मिलावट की
अमीरो में फैल रही बीमारियाँ सब्जियों के तरावट की ।
केलि करते थे तन्मय तलीन हो कभी खग
गमों को भूलकर प्रफुल्लित होता कभी जग ।
भोर की प्रथम किरण बनें हुए थे जीवन में
देख दारूण दशा नीर उमड़-घुमड़ रहे थे नयनों में ।
पलभर का जीवन कुसुम का बना हुआ था
अमरफल
उसके आगमन पर उषा ढुलाती थी कभी चँवर ।
सुरभि श्मशान की दुगन्ध सी बनी हुई
मेरे उक्त कथन पर इंसा की भौंहें मुझ पर तनी हुई ।
जर-जर जरित होती यह अवस्था
बिगड़ गई भारत की सम्पूर्ण व्यवस्था ।।

उर्मिला फुलवारिया
पाली-मारवाड़ (राजस्थान)

error: Content is protected !!