कला की कब्र पर फातिया

Ras Bihari Gaur (Coordinator)विश्वविख्यात सूफी गायक अमजद साबरी की हत्या .. महज एक घटना। एक समाचार ! ज्यादा से ज्यादा एक आतंकी कृत्य ! एक कव्वाल जो सूफी मत को गाता था, मानवीय मूल्यों को मानता था , मोहब्बतों के मजहब से महफिलें सजाता था, सबसे बड़ी बात वह निखालिश कलाकार था। घरों में,कारों में,जलसों में ,लाइव कॉन्सर्ट में, दिलों पर अपनी छाप छोड़ने वाला अमजद साबरी खुद एक छाप बनकर निकल गया। दरिंदगी ने एक बार फिर अपना शिकार उसे ही चुना जो अंधेरों से लड़ने की जिद लेकर घर से निकला था।
यूँ ये सब होता रहा है, हत्या, षडयंत्र,अपराध कुछ नया नहीं है। अंधेरों की उजालो के खिलाफ जंग कुदरत की सबसे बडी किस्सागोई है। कभी इन कट्टरपंथ हादसो के सापेक्ष मूल्यों की गुहार लगाती चीखे सुनाई देती थी।चिराग बुझाने के विरोध में मशाले अक्सर हवाओं से लड़ती नजर आती थी । आसमान से टूटते सितारे में अपशगुन देखकर उम्मीदें बुझ जाती थी। लेकिन अब सब बदल रहा है, हम बदल रहे हैं, देश बदल रह है, दुनियां बदल रही है। खून के रंग में धर्म खोज रहे हैं। सुविधाओं के बीहड़ में सामाजिक उदासीनता हमारी पहचान बन गई है। शोर,संताप या संवाद के निशान किसी चहरे पे दीखाई नहीं देते। मानों रोशनी की जरुरत ही खत्म सी हो गई है । हम अंधेरों में,अंधेरों के, जश्न मनाने में इतने मशगूल कि टूटे तारों से भी समृद्धि की मन्नतें मांग रहे हैं, खोखली ख़बरों के नगाड़ों पर नागिन नृत्य कर रहे है, राजनैतिक ढोल की थाप पर लंगड़े पाँवों से थिरक रहे हैं। परिणामत: संवेदना की सुखी रेत आंसू की एक बून्द के लिये तरस रही है और हम अपना चेहरा आँखों की जगह सेल्फ़ी में देखकर मोहित हो रहे हैं।
क्या सचमुच हम इतने डरपोक हो गए हैं ? क्या सचमुच इस सबसे कोई फर्क नहीं पडता कि कोई कलाकार किसी उन्माद का शिकार हो जाये और हम उसे बासी खबर मानकर भूल जाय। या ये सब अब आदत का हिस्सा बन चूका है! हम ये तक भूल गए कि सभ्य या संस्कारित होने का फलित इन्ही कलाकारों के तप से मिला है। प्रश्न ये नहीं है कि कोई तालिबानी, इस्लामिक, या हिंदुत्व का झंडारबर्दार अपनी धर्मध्वजा के लिए कला की बलि चढ़ाकर अपना साम्राज्य सुरक्षित कर रहा है। चिंता इस बात की है कि समूचा समाज भौतिकी के भोथरें आभूषणों से स्वम को सजाने में इस कदर मशरूफ है कि उसे कला की कब्र पर फातिया पढ़ने का भी समय नहीं है।
कला/ कलाकार के अवसान पर समाज की ये खामोशी ही तो धार्मिक प्रशिक्षण शिविरों के मानव कटार तैयार कर रही है।सत्ता के शिखर उसे पहन अपने सिंहासन की रखवाली कर रहे है। नारे, जुमलों से पटा पूरा विश्व विखंडन की पीठीका लिख रहा है। शिकार साबरी का हो या दाबोलकर का शिकारी का एक ही धर्म है कि कला,साहित्य,संगीत के उजाले मिटाकर अंधेरों का गणराज्य स्थापित करना।
कैसी विडम्बना है कि तलवारों की गूंज में हम अपने समय का संगीत सुन रहे हैं ,गोलियों के कोरस से स्वर साध रहे हैं, कट्टर आचरणों के अभिनन्दन में अपना स्व खोज रहे हैं।साथ ही अपनी नींद में किसी खलल को दाखिल होने की इजाजत नहीं दे रहे।
कल जब गूंगी पीढियां हमसे हमारे समय का संगीत माँगेगी ,तब हम उन्हें अपनी बची और झुकी हुई गर्दन के सिवाय क्या दे सकेंगे।
मेरी असहिष्णुता , मेरी कायरता ,मेरी निजता है कि समय की और पीठ करके उसी कव्वाली को सुन रहा हूँ जिसके स्वरों की चीख को मैंने अनसुना छोड़ दिया है।मेरे पास उसकी कब्र पर फातिया पढ़ने का समय नहीं है
रास बिहारी गौड़ www.ajmerlit.org/blogspot

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