मोहन जो दर्रो : (मोहन जोदड़ो) सिंधी भाषा-लिपि और भावी पीढ़ी का भविष्य

मोहन थानवी
मोहन थानवी
मुअन जो दर्रो बना मोहन जो दड़ो और फिर चलन में
है मोहन जोदड़ो । सिंधु घाटी में पनपी और समय के
चक्र तले जमींदोज मानी जाने वाली विश्व की
पुरा-सभ्यता के संवाहकों के एक बड़े वर्ग को 1947 में
विभाजन की पीड़ा ने तितर-बितर कर दिया। मोहन
जोदड़ो की गहराइयों में दफ़न कालचक्र की खुशबू;
मुस्कराहट; संस्कृति से लबरेज सांसें; समृद्ध जीवन का
हर-पल बीतते समय के हाथों में थमी कलम ने उकेरा
जिसे हम सिंधी साहित्य का इतिहास के पन्नों में
पढ़ते हैं। पढ़ते भी हैं या सिर्फ कहते हैं कि पढ़ते हैं! इस
साहित्य की कक्षा एक में प्रवेश लेने के लिए
परीक्षार्थी हूं मैं और अब तक आधा पन्ना पढ़ कर
सिंधी में 10-12 नाटक; 10-20 कहानियां; 2-4
उपन्यास और कविता संग्रह रचे हैं मगर मोहन जोदड़ो
की परतों में तो ऐसी अरबों-खरबों रचनाएं दबी पड़ी
हैं; जो पुकार रही हैं – हमें खुली हवा में लाओ; बाहर
लाओ। मगर हम हैं कि लिपि और भाषा की दीवारों
को ॐचाई देने वाले राजगीर सदृश्य आचरण में लिपटे
हुए हैं । केंद्रीय साहित्य अकादेमी अरबी सिंधी
लेखन को सराहती-पुरस्कृत-प्रोत्साहित करती है और
मैं व अन्य कई साथी 1995 से इसका विरोध एवं
देवनागरी सिंधी की हिमायत करते हैं । एक वरिष्ठ
साहित्यकार ने तो देवनागरी सिंधी लिपि को
अंगीकार करने की मांग के लिए अकादेमी का
पुरस्कार-सम्मान तक ग्रहण करने से इनकार कर दिया।
युवा रचनाकारों और सिंधी साहित्य-थाती के
सार्वजनिक दीर्घकालिक जीवन के लिए लिपियों
की दीवार ढहाना जरूरी है क्योंकि अरबी सिंधी
लिपि के साहित्य लेखकों/जानकारों की संख्या
अब बमुश्किल तीन अंक पार करती हो जबकि
देवनागरी सिंधी में लेखन की संभावनाएं प्रचुर और
प्रबल हैं । मेरा मानना है कि यह समय भी अगर बीत
गया तो… सिंधी समाज के बच्चों को भी मोहन
जोदड़ो के साथ-साथ सिंधी साहित्य का इतिहास
भी सिंधी लिपि में नहीं वरन् किसी अन्य लिपि में
लिखने-पढ़ने को विवश होगी। काश… ऐसा कदापि
नहीं हो।
— मोहन थानवी
# भावी रचनाकारों की भाषा_लिपि का सवाल

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