महाशक्ति के बौने होने का खतरा

Ras Bihari Gaur (Coordinator)कविता के सिलसिले में अमेरिका दो बार जाना हुआ। पहली बार तब जब अमेरिका में बराक ओबामा और भारत में स्व APJ अबुल कलाम व डा मनमोहन सिंह अपने अपने देशो के सुचितापूर्ण चहरे थे। पूरी दुनियां को
अमेरिका अश्वेत राष्ट्रपति के बहाने ये सन्देश दे रहा था कि वह रंगभेद के कलंक को मिटाने के लिये प्रतिबद्ध हैं। भारत अपने वैविध्य पूर्ण जनतंत्र में विश्व के श्रेष्ठतम वैज्ञानिक एवम् अर्थशास्त्री को सर्वोच्च पदों पर आसीन कर अपने बौद्धिक आग्रहों से सभ्य समाज की सरंचना कर रहा था। ये भी संयोग ही था कि सोनिया गांधी के रूप में तात्कालिक सत्ता प्रमुख एक ईसाई, राष्ट्रपति मुस्लिम और सिख प्रधानमंत्री के साथ बहुसंख्यक हिन्दू, सबसे बड़े लोकतंत्र का पर्व बना रहा था। उधर बराक ओबामा अपनी इस्लामिक पृष्ठभूमि के साथ ओसामा बिन लादेन से दुनियां को मुक्ति दिल रहा था।
दूसरी अमेरिका यात्रा के दौरान ओबामा अपनी द्वितीय या अंतिम पारी खेल रहे थे और भारत में यू पी ए सरकार की अकर्मण्यता कुख्यात हो चुकी थी। आम अमेरिकी मानवीय मूल्यों से इतर वैश्विक वर्चस्व की बात कर रहा था और प्रवासी भारतीय अपने लिए बेहतर अवसर तलाशते हुये देशज विविधता को नकार रहा था। भारत के भीतर तो राजनैतिक परिवर्तन स्पष्ट था ही ,अमेरिका में भी असंतोष की गूंज सुनाई पड़ रही थी।
भारत की अपनी निजता और विशेषता रही है कि कोई राजनैतिक आग्रह उसे खंडित नहीं कर पाता, किन्तु अमेरिका का जनादेश दुनिया भर के राजनैतिक और सामजिक मूल्यों को प्रभावित करता है, विशेषकर वैश्वीकरण के इस दौर में।
इन दिनों अखबार के माध्यमों से अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों का शोर हमारे कानों तक भी आ रहा है। अधिसंख्य समाचार समूह और वैचारिक लोग पहली बार इस शोर से उद्देलित दिख रहे हैं। डोनाल्ड ट्रम्प खुले आम नफरत की पैरवी कर रहे हैं ।इस्लाम से लेकर मेक्सिसियन तक उनकी घृणा के शिकार है। जैसा कि खबरे बताती है कि अमेरिका का कट्टरपंथ उन्हें समर्थन भी दे रहा है। सम्भवतः ये सब किसी पार्टी की चुनावी रणनीति हो, किन्तु इसे हवा मिलने से दुनियां की हवा तो बिगड़ रही है। कट्टरपंथ के हौसले बुलंद हो रहे हैं।
परिणाम चाहे जो हो। लेकिन एक दशक से भी कम समय में भारत से लेकर अमेरिका तक नायक होने के पैमाने बदल गए। जिन कारकों पर हम गर्व करते थे वे आज अयोग्यता के सबसे बड़े कारण हैं। लोकतंत्र में संवाद या सुचिता की जगह सम्मोहन ने ली ली है। हमारी सोच एकाकी और सतही हो गई है। वह अमेरिका जो इराक से लेकर लादेन तक आंतक के खिलाफ युद्ध करता है पर धर्म विशेष को नहीं घसीटता था। वह भारत जो दंगों की आग में जलने के बावजूद दिलों में मोहब्बत के दिए जलाये रखता था । आज गायब नजर आते हैं। कारण सम्भवतः यही हैं कि कभी धर्मध्वजा लेकर अग्रिम पंक्ति के लोग अनुकरणीय होते थे, पर अब हम नेतृत्व की मशाले उन्हें सौंप रहे हैं जो आग के सौदागर हैं। इससे एक बार को बहुत चमकदार उजाला नजर तो आता है किन्तु हर पल घरौंदा जलने की सम्भावना बनी रहती है। भौतिक मनोविज्ञान एक ऐसा मानवीय समाज गढ़ रहा है, जहाँ दूसरे के लिए बहुत कम अवकाश है ।ऐसे में राजनैतिक शक्तियां क्रूर होने की हद तक शासन करती है। उम्मीद है कि हम जल्दी ही इनके कुचक्रों को समझेंगे अन्यथा एक महाशक्ति दुनियाँ के सामने काफी बौनी नजर आएगी।
रास बिहारी गौड़ www.ajmerlit.org/blogspot

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