गुरु साक्षात परम ब्रह्मतस्मै श्री गुरुवे नमः

अपर्णा झा
अपर्णा झा
अभी कुछ ही दिन गुज़रे हैं जब “शिक्षक दिवस” मनाया गया. इस अवसर पर बधाइयों का सिलसिला और जश्न ,बदस्तूर प्रत्येक वर्ष की तरह इस बार भी दिखाई दिया. क्यों ना आज हम कुछ जमीनी हकीकत से भी जुड़ जाएँ. उदाहरण के तौर पर कुछ गुजिश्ता यादें हैं जिन में से तीन मैं साझा कर रही हूँ.
1.अभी कुछ दिन पहले सारनाथ जाना हुआ जहाँ बुद्ध की प्रतिमा , अपने शिष्यों को प्रवचन देते हुए, दिखाई दे रही है. गोलाकार स्थिति में लगी ये प्रतिमाएं छोटे -छोटे ध्वजों की बनी माला के कई परत से लिपटी पड़ी हैं. पर्यटक आ कर अपने मन की मुराद इन ध्वज श्रृंखलाओं पर यहाँ लिख जाते हैं. कई ध्वजों में लिखी हुई मन्नतो को जब पढ़ने लगी तो ऐसा आभास हुआ की यहां आने वाले पर्यटकों में ज्यादातर स्कूली और कॉलेज के विद्यर्थियों की संख्या अधिक थी . कई ने प्रभु से परीक्षा में पास कराने तो किसी अपने परिश्रम को बताते अच्छे अंकों से पास कराने की मिन्नतें की थी. जो कुछ मेरे दिल को छुआ वह यह ‘ प्रभु मेरे माँ-पिता जी को मना लो मुझे पढ़ने दें और साथ ही मेरे भाई को समझा लो कि वो मुझे पढ़ने जाने दें.’ उस बच्चेे का परवरिशी माहौल उसके इस छोटे से ध्वज पर लिखे से बिलकुल स्पष्ट हो जाती है.
2.दूसरा उदाहरण यह कि जब भी मैं किसी महिला शिक्षिका के घर गई होऊंगी तो मुझे उनके परिवार वालों से यही सुनने को मिलता है कि चलो आराम से जिंदगी कट रही है दो पैसे घर में आ भी जातें हैं और परिवार भी बाधित नहीं होता. दूसरे यह की पैसे थोड़े और आ जाएं तो क्लास के कमजोर बच्चों के माँ-बाप को tuition की सलाह दे डालो . बच्चे जब उस शिक्षक से व्यक्तिगत तौर पर पढ़ेगा तो अच्छे अंक तो आएंगे हीयहाँ भी स्थिति स्पष्ट कि प्राथमिकता किस बात की अधिक है.जहाँ ऐसी सोच के साथ शिक्षक हों तो ज्ञान स्तर बच्चों के हाल पर ही छोड़ दिया जाय.☺coachnig classes की विवशता समाज में घुन की तरह लग चुकी है जो बच्चों में डर, दबाव और प्रतिस्पर्धा की भावना भरती है जिसका लक्ष्य मात्र एक की भौतिक तावाद के इस युग के लिए को बच्चे को तैयार करना , जहाँ संस्कृति और संवेदना की जगह तो कम होती है बस सीख यही की कैसे छोटी मछली मार बड़ी मछली की जगह में बने रहें.
3. हमारा परिवार जिस डॉक्टर के पास बिमारी की स्थिति में इलाज हेतु जातें हैं, हम अक्सर यही देखते कि डॉक्टर साहब तो खुद बहुत ही स्मार्ट, एक्टिव और परमार्थ सेवा हेतु तत्पर , लोग दूर-दूर तक उन्हें जानते.उनके रहते मरीजों की लंबी कतारें परन्तु यही स्थिति तब उलट जाती है जब डॉक्टर साहब का अपने क्लिनिक से बड़े अस्पताल जाने का वक्त होता है और उनके अनुपस्थिति में उनकी पत्नी क्लिनिक संभालती . मरीज उलटे पाँव वापस होने लगते हैं. हालांकि मैडम का work experience और education qualification डॉक्टर साहब के बराबर का ही है पर care teker का ओहदा तो वैसा ही होगा. हद तो तब होती है जब डॉक्टर साहब वहां उपस्थित हों. मैडम मरीजों को जो दवा लिखती हैं वह भी डॉक्टर साहब को दिखा कर होते.
सहमी सी , निद्रावस्था में जागृत maam से मेरा साक्षात्कार हुआ तो पता चला कि वह घर के सारे काम कर , बच्चों को पढ़ाते लिखाते , तब फिर क्लीनिक को संभालना उनकी जिम्मेदारी है , जिसमे कहीं भी कमी हुई तो डॉक्टर साहब का गुस्सा खतरनाक. महंगा ph उन्होंने जरूर रखा था पर उसकी उपयोगिता आजकल के जैसे नहीं.इसके पलट पतिदेव रात 11-12 बजे तक whats app , fb पर अपनी थकान उतार रहे.
अब बात यह आती है कि इन तीनों उदाहरणों का निचोड़ यही कि जीवनपर्यन्त, प्रथम शिक्षक(माँ-बाबूजी) से ले जीवन में हर मोड़ पर आपको पथप्रदर्शक मिलते तो हमेशा ही हैं( हो सकता है वह शिक्षक रूप हो अथवा किसी भी इंसानी रिश्ते के रूप में) पर क्या वह आपकी भावनाओं, अपेक्षाओं को सोचने, समझने में सक्षम है और यदि हां तो आपके सद्गुणों को निखारने में सहायक है यदि हां तो समझिए कि आपको सद्गुरु के साक्षात दर्शन और आशीर्वाद प्राप्त हैं.
@Ajha.
अपर्णा झा.

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