कोई थानेदार रपट नहीं लिखता
कोई ओहदेदार हमारी पीड़ा नहीं सुनता
तर्क है उनका; खो जाने में अपराध कहां ?
अपराधी को ढूंढ़ें किस बिना पर ?
धरोहर की लूट हो; चोरी हो; आग की घटना हो अमानत में खयानत या किया हो किसीने छल कपट
लाओ कलम-दवात लिखा दो रपट
अब कैसे मिलेगी हमारी थाती हमको वापस
हमारी बेशकीमती धरोहर खो गई है
क्या कहा ?
हम खुद भी नहीं सुनना चाहते हमारी व्यथा ?
क्या कहा ?
विस्तार न दें पीड़ा को ?
बस; बता दें; क्या हमने गंवाया ?
हां; सही कहा – सीधी बात असर करती है
घुमा फिरा के बात कहना वेदना व्यक्त करना नहीं
अभिव्यक्ति का माध्यम; एक कला हो सकती है
तो सुन लो – हमारी कला ही तो खो गई है
साथ रहकर जीने की कला
और उस कला का पोषण-स्थल खो गया है
सुनो सीधी बात
यह जो महानगर में एक मॉल है न; इसमें पहले एक गांव था
एक नीम-गट्टा था
एक कुंआ था
एक जोहड़ था
एक पाठशाला थी
एक गऊशाला थी
एक लुहार; एक धोबी; एक नाई; एक महाजन; एक बजाज; एक खाती की दुकान थी
एक साथ मिल बैठकर खाने को अपने अपने पसीने की कमाई की रोटी थी
खुशी खुशी गम भुलाने वाले हंसी-ठट्ठा करने वाले हम भोले ग्रामीणों की टोली थी
सब माल खो गया
मॉल हो गया
अब और क्या सीधा बयान हो
बेशकीमती धरोहर खो गई है मगर
कोई थानेदार रपट नहीं लिखता
कोई ओहदेदार हमारी पीड़ा नहीं सुनता
— मोहन थानवी
