ये मेरे शहर को हुआ क्या है ?

Bhanwar Meghwanshiअभी अभी भारी मन से उस शहर को छोड़ा है ,जिसे मैं अपना कहता हूं . साधिकार मेरा शहर .जहां मैं पढ़ा लिखा,जहां मैने कलम थामी ,पत्रकारिता की ,कविताएं लिखी ,कवि सम्मेलन पढ़े और सुने. जहां मैने नारे लगाने सीखे ,पुलिस के डंडों का स्वाद चखा. कभी शाखा में गया और हिन्दुत्व की जय जयकार की. बाद में लोकतंत्र ,संविधान और सेकुलरिज्म का झण्डा उठा कर बैखौफ यत्र तत्र सर्वत्र मंडराते रहा हूं .

हर मौसम मुझे यहां अपना सा लगा.कभी दहशत या वहशत नहीं हुई. कर्फ्यु भी देखा और जाना कि संगीनों के साये तले घर में चुपचाप दुबके रहना कैसा पीड़ादायक होता है.

खैर ,बात मेरी नहीं ,मेरे शहर की है ,जिसके वातावरण में आजकल नफरत का धुंआ ही धुंआ व्याप्त है .मोहब्बत खोजनी पड़ रही है. एक युग बीत गया यहां की फिजां को खराब हुये.कुछ शरारती तत्वों ने नई सदी का स्वागत हिन्दू मुसलमान ,दाढ़ी चौटी ,मंदिर मस्जिद के बेमानी मुद्दों से किया. मजारों के कपड़ों का रंग बदला तो तनाव .अजान की आवाज ऊंची हुई तो तनाव.

लोग भगवा और हरे झण्डों के नाम पर लड़ने लगे.हालांकि दोनो रंग के झण्डे समझदार निकले ,वे शांत रहे. कभी मंदिरों में इंसानियत के दुश्मन गिद्दों ने मांस के लौथड़े फैंक कर माहौल बिगाड़ा तो कभी मस्जिदों को आग से तपाने की साजिश रची गई. कुछ लोग हर मुमकिन बहाने ढूंढ़ते रहे लड़ने के.जब जब मौका लगा लड़े भी और लड़ाया भी.

वो शहर जो तन ढ़कने के लिये कपड़े का उत्पादन करने में अग्रणी रहा,जिसने एशिया का मैनचेस्टर होने का खिताब हासिल किया . जहां की सरजमीं ने अभ्रक ,सेण्डस्टोन के जरिये अपना नाम किया और जहां के ट्रेक्टर कम्प्रेशर्स ने धरती के गर्भ को गुंजायमान कर दिया. जहां के मेवाड़प्रेम आईसक्रीम वाले इस मुल्क के हर शहर मे आपको मिल जायेंगे. उस शहर भीलवाड़ा को विगत डेढ़ दशक से अतिवादी ताकतें अपनी निर्मम प्रयोगशाला बनाये हुये है.

कभी ग्रामीण किशोर सत्यनारायण मार दिया जाता है तो कभी शहरी इस्लामुद्दीन कातिलों के खंजर का शिकार हो जाता है. कभी राजू बैरवा का दम गोली मारने से टूट जाता है तो कभी विशाल पारीक की सांसे आततायियों के चाकू से उखड़ जाती है. गोलीबारी ,चाकूबाजी ,आगजनी ,मारपीट जैसे अब भीलवाड़ा की नियति बन चुके है.

ये कैसा शहर बना डाला है हम लोगों ने ? स्वाधीनता संग्राम के सैनानी प्रतापसिंह बारहठ ,विजयसिंह पथिक ,माणिक्यलाल वर्मा ,नानकभील के इस जिले को यह हुआ क्या है ?

ये किसका बोया विष बीज है ,जो आज मौत और डर का वटवृक्ष बन गया है ? हर लब पर यह सवाल है ? हर नज़र यही पूछ रही है . शायद हम जानते भी है पर अनजान बने रहने में ही अपनी भलाई समझते है.हम बोलना नहीं चाहते.हम क्यों कहें ?हम क्यों टार्गेट पर आयें ? हमें क्या ? हमारा क्या लेना देना? हम अपनी अपनी सुविधा के अनुसार बोलते है या चुप रह जाते है.

यह चुप्पी भयानक है.यह शुद्ध कायरता है.यह विशुद्ध पाखण्डपन है.यह आत्मघाती शुतूरमुर्गी रवैया है.इसे जेहनी अपाहिजियत कहना अच्छा होगा. आखिर हम अपने ही शहर के प्रति इतने बेगाने कैसे हो सकते है कि उसे बर्बाद होते देखें.

नहीं हमें चुप्पी तोड़नी चाहिये,हमें अपने अपने वैचारिक ,सामाजिक ,धार्मिक पहचानों के सुरक्षित दड़बों से बाहर आना होगा. हमें कहना होगा कि जो कुछ आज भीलवाड़ा में चल रहा है ,वह हिन्दु और मुसलमान की लड़ाई नहीं है. यह मूलत: दो परिवारों की लड़ाई थी जो अब कई हितसमूहों के न्यस्त स्वार्थों की लड़ाई में बदल चुकी है.इसके बहुत थोड़े से सूत्रधार है मगर बहुत सारे मोहरे है.जो भीलवाड़ा के व्यापार वाणिज्य और लोकशांति को तहस नहस करने की बड़ी साजिश कर है.कुछ बेहद शातिर दिमाग लोग भीलवाड़ा को बर्बाद कर रहे है और हम चुपचाप देखने को विवश है.

पहले नोटबंदी की मार और अब बात बात पर नेटबंदी ! बस दंगा रोकने का यही एकमात्र अचूक तरीका है प्रशासन के पास. जो लोग दंगा फसाद में शामिल नहीं है,जिन्हें ऑनलाईन अपने काम करने है ,उन्हें किस बात की सजा दी जा रही है.जो लोग आपके किसी दल या फ्रन्ट से तालुक नहीं रखते ,जिन्हें कोई झण्डिया नहीं लगानी ,जिनका कोई जुलूस नहीं निकल रहा है,जो पत्थरबाजी से कोसों दूर है ,उन्हें क्यों वहशत में जीने को मजबूर किया जा रहा है ?

क्या शासन और प्रशासन का इतना भी इकबाल नहीं बचा कि वो हुड़दंगियो को संगबाजों को पकड़ कर सलाखों के पीछे फैंक दे ?नहीं ऐसे नहीं चलेगा हम इन तरह तरह की बंदियों के बंदी नहीं बनना चाहते है.हमारे मन मस्तिष्क और शहर को अनिश्चित काल के लिये बंद मत कीजिये.

हम चाहते है कि तमाम पत्थरबाज बंद हो,वो हिन्दू हो चाहे मुसलमान ,हमें अमन के इन दुश्मनों को कानून के हाथों बंद होते देखना है.हम नेटबंदी ,शहरबंदी नहीं चाहते.हमारे शहर को रोकिये मत ,उसे अपनी गति से चलने दीजिये.उस पर पत्थर मत बरसाईये.उस पर लाठियां मत भांजिये.मेरे शहर को जीने दीजिये ,उसे मारिये मत.

मैं अपने बर्बाद होते शहर और अम्नो सुकून से जी सकने के मरते हुये सपने को बचाने की कौशिसों में हूं. पिछले दो तीन दिनों से अपने साथियों के साथ मिलकर अलग अलग पक्षों से मिल रहा हूं .संवाद कर रहा हूं.शांति की अपील कर रहा हूं और सवाल भी कर रहा हूं कि क्या हम सब जिन्दा लोग मिलकर अपने ही शहर को मुर्दों के टीले में बदल देना चाहते है ?

जब इंसान ही नहीं बचेंगे तो किसको मंदिरों की आरतियां ,शाखाओं की प्रार्थनायें और मस्जिदों की अजानें सुनायेंगे ? मेरे शहर के लोगों अपने शहर को बचाओ.अपने शहर का बचना सिर्फ इमारतों का बचना नहीं है,यह हमारी इंसानियत का बचना भी है.

-भँवर मेघवंशी
( लेखक सामाजिक कार्यकर्ता एवं स्वतंत्र पत्रकार है और भीलवाडा के निवासी है ,जहां हर दिन अब साम्प्रदायिक तनाव के साये में गुजर रहा है )

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