कॉर्पोरेट को सब्सिडी तो किसान को क्यों नहीं ?

अब्दुल रशीद
अब्दुल रशीद
अब्दुल रशीद।। भारत कृषि प्रधान देश है लेकिन इस देश के किसान कि हालत बद से बत्तर होती जा रही है यह भी
एक कड़वा सच है. पुरे देश में किसान अपने बदहाली से मुक्त होने के लिए आन्दोलन कर रहें हैं. तमिलनाडु के
किसान हाथ में खोपड़िया लिए और मुंह में चूहा दबाकर दिल्ली में अर्धनग्न प्रदर्शन करते हैं. महाराष्ट्र के किसान
अपनी मांगों को लेकर हड़ताल और मध्य प्रदेश के किसान आन्दोलन कर अपने हक़ के लिए आवाज़ बुलंद करते नज़र
आए. मध्य प्रदेश के मंदसौर में आन्दोलन कर रहे किसानों पर पुलिस फायरिंग होता है जिसमें किसानों कि मौत हो
जाती है और कई गंभीर रूप से घायल हो जाते हैं. मध्य प्रदेश कि बीजेपी सरकार मुआबजे का एलान करती है और
जाँच के आदेश दे देती है. सबसे अहम सवाल यह है के क्या किसान मुआबजे के लिए आन्दोलन कर रहे थे,या हक़
के लिए ?

अभी हाल में ही केंद्र सरकार ने अपने कार्यकाल के तीन साल पूरे होने पर दावा किया कि उसने किसानों के हित में
कई योजनाएं लागू की हैं. नीम कोटेड यूरिया, किसान चैनल और सोइल कार्ड जैसी योजनाओं का कई बार बखान
किया. लेकिन हरित क्रांति के दावे और सरकारी वादों के बीच हल छोड़कर कर अपने समस्याओं के हल के लिए
आन्दोलन कर रहे किसानों कि मांग अलग दास्तान बयाँ करती है.

17 सौ रुपये किसान की मासिक आय है
दशकों से देश में किसान दुखी हैं और हालात ऐसा हो चला है की उनके सामने सड़क पर उतरने के अलावा कोई रास्ता
ही नहीं बचा है. इसका मुख्य कारण है उन्हें पैदावार का उचित कीमत नहीं मिलती. न ही सरकारें द्वारा किसानों की
फसल के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करते समय उनकी जरुरतों और उनके वास्तविक हालात के बारे में
सोचा जाता है.

साल 2016 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत के 17 राज्यों में किसान परिवार की औसतन आय 20 हजार रुपये
साल है. यानी 17 सौ रुपये किसान की मासिक आय है

सरकारें द्वारा कार्पोरेट जगत के लिए तो खजाना खोल दिया जाता है और उनके कर्ज को माफ़ कर दिया जाता है
लेकिन देश के अन्नदाता के लिए खेल खेला जाता है गेहूं का उत्पादन होता है मार्च-अप्रैल में और मूल्य तय जनवरी
में किया जाता है, जबकि उद्योगों में उत्पादन के बाद मूल्य तय किया जाता है.
वादों का पिटारा और जमीनी हकीकत
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव के वक्त वादा किया था कि सरकार बनने के बाद वो स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट के
हिसाब से लागत पर 50 प्रतिशत मुनाफा देंगे. सरकार बनने के बाद वो इसका जिक्र भी नहीं करते.
“महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस चुनाव के वक्त कहते थे कि सोयाबीन का भाव छह हज़ार रुपये होना चाहिए.
उस वक्त भाव 3 हज़ार आठ सौ था आज जब वो मुख्यमंत्री हैं तब भाव पच्चीस सौ रुपये है.”

जब कार्पोरेट को प्रोत्साहन तो किसान को क्यों नहीं ?

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक साल 2015 में करीब 12 हज़ार किसानों ने आत्महत्या की. किसान के आत्महत्या करने
के प्रमुख कारण है स्वास्थ्य के लिए बढ़ता खर्च, कर्ज का बोझ,और फसलों का उचित समर्थन मूल्य न मिलना. कर्ज़
माफ करना यक़ीनन समस्या का स्थाई समाधान नहीं है लेकिन किसानों को मुख्य धारा में लाना है तो मौजूदा हालात
में ऐसा करना जरूरी लगता है. जब सरकारें कॉर्पोरेट जगत को छूट दे सकती है तो तो किसानों के कर्ज माफ़ी में क्या
दिक्कत है. सरकार जब 60 हज़ार करोड़ रुपये प्रतिवर्ष कॉर्पोरेट को प्रोत्साहन के लिए देती है तो उसका अर्थव्यवस्था
पर फर्क नहीं पड़ता तो किसान को देने पर क्यों पड़ेगा.”
बे लाग लपेट – बेहतर तो यह होता के राजनीती से उपर उठकर बात होती, मुआबजे के रूप में किसानों के जिन्दगी
का क़ीमत तय करने के बजाय समस्याओं के समाधान के लिए ठोस कदम उठाया जाए.

अब्दुल रशीद
संपादक
उर्जांचल टाईगर(हिंदी मासिक)
सचिव(रीवा संभाग)
मध्य प्रदेश श्रमजीवी पत्रकार संघ
www.urjanchaltiger.in

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