बिहार चुनाव – वादों का दौर हुआ ख़त्म

अब्दुल रशीद
अब्दुल रशीद
-अब्दुल रशीद- भाजपा ने बिहार विधानसभा चुनावों में विजयश्री पाने के लिए अपने तरकश के सभी तीर दाग़े लेकिन निशाना चूक गया और कारारी हार मिली. विवादित बयानबाजी और हवा हवाई विकास के दावे को बिहार कि जनता ने खारिज़ कर दिया.

सबका साथ सबका विकास का नारा देने वाली भाजपा ने भले ही लोकसभा में
ऐतिहासिक जीत प्राप्त किया लेकिन डेढ़ साल बाद बिहार चुनाव में अपने विकास
कार्यों का बखान करने के बजाय विवादित मुद्दों का सहारा लेना पड़ा.
सत्ताधारी नेता आलोचकों को देशद्रोही का सर्टिफिकेट बांटते रहें और
हिन्दुस्तान से बेदखल कर पाकिस्तान भेजने की बात करते रहें. हद तो तब हो
गई जब बिहार में महागठबंधन की जीत पर पाकिस्तान में पटाखे फूटने कि बात
स्वयं भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने चुनावी सभा में कही. बिहार में जीत
के लिए बिहारियों को तवज्जो देने के बजाए नितीश कुमार के डी.एन.ए. पर
सवाल उठा कर विपक्ष को बैठे बैठाए ऐसा मुद्दा दे दिए जिसे महागठबंधन ने
बिहारियों के सम्मान से जोड़ दिया. बिहार के चुनाव में भाजपा के करारी हार
के लिए बहुत हद तक स्वयं भाजपाई ही जिम्मेदार हैं.

टेलीविजन पर चुनावी चर्चा के दौरान भाजपा के प्रवक्ताओं का विशेष अंदाज
रहा किसी भी समस्या के निदान पर पूछे गए सवाल के जवाब में कांग्रेस ने
ऐसा किया था या कांग्रेश कि वजह से ऐसा हुआ मानों हर सवाल का जवाब
कांग्रस से शुरू होकर कांग्रेस पर ही ख़त्म. हमने ऐतिहासिक जीत हासिल कर
कांग्रेस को दो अंको में समेट दिया है.मानो देश कि जनता ने भाजपा को अजेय
बना दिया हो लेकिन लोकतंत्र में ऐसा नहीं होता तभी तो दशकों से राज करने
वाली पार्टी को दो अंको में समेट दिया.

अब बिहार चुनाव में महागठबंधन के अप्रत्याशित जीत और भाजपा के करारी हार
के हर पहलू पर विश्लेषकों द्वारा पन्ने रंगे जाएंगे और भाजपा में भी हार
का मंथन होगा. लेकिन जिन्हें बुद्धिजीवियों के अवार्ड वापसी में भी
सियासत दिखता हो वो भला उनके विश्लेषणात्मक लेख को कितना तवज्जो देंगे ?
सारे विश्लेष्ण को दरकिनार कर अपने सहूलियत के मुताबिक वजह को
प्रतिद्वंदी की साजिश करार देना चाहेंगे, लेकिन इससे क्या हासिल होगा?
जबकी हकीकत तो यही है के दाल की मंहगाई ने बिहार में भाजपा की दाल नहीं
गलने दी. बीते साल दिल्ली में लगे बिजली के झटके के बाद अब बिहार में
बिहारी डी.एन.ए के इस झटके को भाजपा कैसे पचा कर लीपापोती कर एक और हार
कि ओर बढ़ेगी या आत्ममंथन कर कोई ठोस निर्णय ले कर विजयश्री के लिए कूच
करेगी ? क्योंकि जनता को अब विकास चाहिए जुमाला नहीं.

सबसे अहम सवाल यह है कि तरकश के तमाम तीर आजमाने, यहां तक कि
ब्रह्म्मास्त्र के बावजूद भी भाजपा को मुंह की क्यों खानी पड़ी? शायद अब
ज़माना बदल रहा है,और जमाने के साथ सोंच भी. अब चुनावी वादों को कोई भूलता
नहीं,वोटर वोट के बदले काम चाहती है वह भी जमीनी स्तर पर हवा हवाई नहीं.

बिहार प्रचार अभियान के दौरान भाजपा बार-बार जंगलराज कि वापसी की बात कह
कर लोगों को डराती रही. लेकिन जवाब में जनता ने लालू प्रसाद की राजद को
सबसे ज्यादा सीटें देकर भाजपा के आरोपों को आईना दिखा दिया.

इस चुनाव में राजनैतिक वजूद की लड़ाई में नीतीश मोदी पर भारी पड़ गए.
कारण सुशासन बाबू की साफ-सुथरी छवि और राज्य में किए गए नितीश कुमार के
जमीनी विकास कार्य के सामने हवाई आरोपों को पूरी तरह नकार दिया.
महागठंबधन की जीत के लिए नीतीश की लोकप्रियता को भी एक प्रमुख कारण माना
जा रहा है. यह उनकी साफ छवि व काम ही करिश्मा था के बिहार चुनाव में कोई
सत्ताविरोधी लहर नजर नहीं आई.

भाजपा अपनी जीत के लिए सत्ताविरोधी लहर तलाश रही थी,लेकिन कोई लहर हो तब
तो. सुशासन बाबू ने इस चुनाव में बिहारी बनाम बाहरी का नारा देकर खुद को
आम बिहारियों से जोड़ने में सफल रहें, और महागठबंधन कि यह सफलता वोट में
तब्दील हो गई.और विजयश्री का ताज महागठबंधन को मिल गया.

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