वो ज़मीन हम आसमां होते थे ,
तब कही दोनों जहाँ होते थे
हो न पाया वो कभी दूर मुझसे ,
फासले चाहे दरमियाँ होते थे
तन्हा खड़े खुद का पता पूछते हैं ,
संग जिनके कभी कारवाँ होते थे
सीना ताने कड़ी है इमारत जहां
मुफलिसों के कभी छोटे मकाँ होते थे
स्याही से पुत गयी है बूढी दीवारें ,
जिन पे कभी उल्फत के निशाँ होते थे
खताएं अपनी महसूस करता हूँ ,
खो कर उन्हें जो हमनवां होते थे
फकीरी में मज़ा आ रहा है उनको ,
जिनके कदमो में कभी आसमां होते थे
गुज़रे आज पास से अजनबी बनकर
जो कभी मेरे रहनुमां होते थे
-नरेश ‘मधुकर’