अफ़सोस ज़िन्दगी का,कभी था न है ना होगा,
हमें शौक ख़ुदकुशी का,कभी था न है ना होगा .
मज़हब कोई बड़ा है,इंसान की हंसी से,
ये ख़याल शायरी का,कभी था न है ना होगा.
उसको सबक वफ़ा का,सिखला रहे हो लेकिन,
वो शख्श तो किसी का , कभी था न है ना होगा,
अहसास जिस घड़ी में,उसका हुआ था मुझको,
आलम वो रोशनी का , कभी था न है ना होगा,
हैं एक जैसे लेकिन् दुनियां में एक जैसा ,
क़िरदार आदमी का, कभी था न है ना होगा,
वो बसर था वो बसर है,वो बसर रहेगा लेकिन ,
कोई मिस्ल उस नबी का, कभी था न है ना होगा.
बसर=आदमी …मिस्ल=बराबर
सुरेन्द्र चतुर्वेदी