श्रम की ऋद्धि-सिद्धि का पर्व है दीपावली

सामाजिक सौहार्द्र व सामाजिक संरचना से जुड़े निर्माण कार्यों में त्योहार अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। त्योहारों के माध्यम से धर्म और जीवन मूल्यों की रक्षा होती है, संस्कारों का विकास होता है। अपनी धार्मिक परंपराओं में तमाम वैज्ञानिक व सांस्कृतिक कारण शामिल हैं। दीपावली मुख्यत: आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक, तीनों रूपों का समागम करने वाला प्रमुख त्योहार है। पञ्चदिवसीय इस पर्व के क्रम को गहराई से देखने पर ऐसा अनुभव होता है, जैसे यह श्रम की ऋद्धि-सिद्धि का पर्व है।
कृषिप्रधान हमारे देश में दीपक, बाती, अनाज आदि जहाँ श्रम की ऋद्धि या वृद्धि के प्रतीक हैं, वहीं धातु के बर्तन, मिष्ठान्न, घी, तेल आदि श्रम की सिद्धि या सफलता से मिले परिणाम के प्रतीक हैं। निष्ठा और लगन के फलस्वरूप प्राप्त इन परिणामों का ही नाम है शुभ-लाभ। और शुभ-लाभ से मिली प्रसन्नता को मिल-बाँट कर साझा करने की प्रेरणा देने वाला पर्व है – दीपावली।
कार्तिक मास में दीपदान के महत्व का वर्णन शास्त्रों में किया गया है। पँचमहोत्सव अर्थात धनतेरस, रूपचतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा, तथा यमद्वितिया को दीपदान करने से यज्ञों और तमाम तीर्थ स्थलों का पुण्य प्राप्त होता है। कहा जाता है कि इन पाँचों पर्वों की पूजा से लक्ष्मी जी प्रसन्न होती हैं और स्थिर रूप से विराजती हैं। इसीलिए इस पँच पर्व को कौमुदी महोत्सव के रूप में भी जाना जाता है।

धनतेरस:-
शास्त्रों में कहा गया है कि यह पर्व दीपावली की प्रथम सूचना का संदेश देता है इसीलिए घर में लक्ष्मी जी का प्रवास माना जाता है। इसीदिन आदिवैद्य धनवंतरि समुद्र से अमृत कलश लेकर प्रगट हुए थे। अत: धनतेरस को धनवंतरि जयंती भी कहते हैं। आयुर्वेदाचार्यों तथा वैद्यौं द्वारा अपनी औषधियों व चिकित्सा के प्रभावी और सिद्ध होने व रोगियों के आरोग्य लाभ की कामना से, भगवान धनवंतरि का पूजन विशेष रूप से किया जाता है।
पूरे वर्ष में यम का पूजन भी मात्र इसी दिन किया जाता है। कहा गया है कि जब मृत्यु के देवता यमराज की पूजा की जाती है तो यमराज से आशीर्वाद के रूप में अकाल मृत्यु से रक्षा का प्रसाद भी मिलता है।
सभी घरों में दीपावली की सजावट भी इसी दिन से प्रारंभ हो जाती है। अत: इसी दिन से घरों की सफाई-पुताई आदि भी की जाती है। रंगोली बनाने से लेकर चौक सँवारने तक का कार्य तन्मयता के साथ किया जाता है और यह भी कहा जाता है कि इस दिन तांबा, पीतल, काँसा आदि धातुओं के पुराने बर्तनों को बदल कर नये बर्तन खरीदना शुभप्रद माना जाता है। इसी दिन सोना-चाँदी आदि खरीदने से समृद्धि मिलती है।
दीपक जलाने का सिलसिला त्रयोदशी से ही प्रारंभ हो जाता है। त्रयोदशी के दिन यमराज के लिए भी एक दीपक जलाते हैं।

नरक चतुर्दशी:-
कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्दशी का पर्व नरक चतुदर्शी का पर्व माना गया है। इसी दिन नरक से मुक्ति पाने के लिए सूर्योदय से ही तेल डालकर अपामार्ग (चिचड़ी) का पौधा जल में डालकर स्नान करना चाहिए। मुख्यत: इस पर्व का संबंध स्वच्छता, स्वास्थ्य, सौन्दर्य, सुख और शांति से है, इसीलिए इस त्योहार को घर का कूड़ा-कचरा साफ करने वाला त्योहार भी कहते हैं। इसदिन शारीरिक स्वच्छता का भी विशेष महत्व है। कहा जाता है कि इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर शरीर पर तेल उबटन आदि लगा कर स्नान करना चाहिए। जो लोग सूर्योदय से पूर्व स्नान नहीं करते, उन्हें वर्ष भर शुभ कार्यों में विनाश झेलना पड़ता है व दरिद्रता और संकट पूरे वर्ष उनका पीछा नहीं छोड़ते।
शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्दशी के दिन स्नान के बाद तीन अंजुल जल भरकर यमराज के निमित्त तर्पण करना चाहिए। जिनके पिता जीवित हैं, उन्हें भी यह तर्पण करना चाहिए ताकि यमराज प्रसन्न रहें तथा उनके परिवार में न तो किसी को नरक में जाना पड़े और न ही किसी को अपमृत्यु का भय रहे। इसे छोटी दीवाली और रूप-चौदस भी कहते हैं।
बंगभूमि में इस दिन चौदह प्रकार के शाकों का मिश्रण, भोजन के साथ विशेष रूप से ग्रहण किया जाता है।
अमावस्या को बड़ी दीपावली का पूजन होता है।
दीपक जलाने का मुख्य कारक:-
त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावस्या इन तीनों दिन में दीपक जलाने की मुख्य धारणा यह बतायी गयी है कि इन दिनों भगवान वामन ने तीन पगों में पृथ्वी, ब्रह्माण्ड व बलि का सिर मापा था।
छोटी दीपावली को ग्यारह, इक्कीस, इकतीस दीपक जलाने का प्रावधान है। इसमें पाँच अथवा सात दीपक घी के जलाये जाते हैं, शेष दीपक तेल के होते हैं।
त्रयोदशी, चतुर्दशी और अमावस्या को यम के लिए दीपक जलाकर, गणेश-लक्ष्मी, काली, सरस्वती, कुबेर, नवग्रह आदि के पूजन सहित दीपावली मनाते हैं, ताकि लक्ष्मी जी स्थिर भाव से विराजती रहें।
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा तथा अन्नकूट महोत्सव होता है। गोधन और कृषिभूमि को सर्वोच्च सम्पदा मानने वाले हमारे पूर्वजों ने महानिशा की महापूजा के बाद, नये दिन का शुभारंभ गोवंश, गोबर और गोवर्धन की पूजा से किया। इसके निहितार्थ हैं प्रकृति पर निर्भरता, उसका संरक्षण करना और उसका संतुलन बनाए रखना। तत्पश्चात् शुरू होता है अन्नकूट महोत्सव। आश्रयदाताओं व आश्रितों की समरसता और सहभागिता को सम्मान सहित मान्यता प्रदान करने वाला यह पर्व अब रूढ़ि बन कर रह गया है।

यम- द्वितीया :-
ऋद्धि-सिद्धि के पुत्र शुभ-लाभ के स्थायी भाव की, आरोग्य-आयुष्य की, धन-सम्पदा की वृद्धि की कामना करते हुए, भाई-बहन एक दूसरे को उपहारों से समृद्ध करते हुए इस पर्व का समापन करते हैं।

-संजय सामवेदी

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