घर में बैठे गद्दार है
भूल जाते हैं जो अपनी माटी की खुशबू
उनको प्यारी आयातीत असहनीय शीशी
इन गद्दारों को परवाह नहींं शहीदों की
शहीदों को नमन करती भीगी आंखों को भी
ये गद्दार तिरस्कृत करते न शरमाते हैं
दुश्मन कर रहा पीठ पर वार
ये गद्दार तब भी कह रहे दुश्मनों से बात हो
यह गद्दार जनता को समझते हैं नादान
दिन को रात कहते
और रात को दिन बता देते
फिर जनता को कहते मैंने ऐसा तो नहीं कहा
ऐसे गद्दारों को गुलाब के कांटों की तरह हम क्यों सहेजें ?
ऐसे गद्दारों को खेत की मेड में क्यों में क्यों इस्तेमाल करें ?
आओ मिलकर हम सब ऐसे गद्दारों को झोंक दें चूल्हे की आग में
घर में बैठे जो गद्दार हैं
पहले बारी उनकी है फिर दुश्मन से लोहा लेंगे क्योंकि ये देश के, मगर गद्दार है
घर में बैठे गद्दार हैं
-✍️ मोहन थानवी
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