बीते दिसंबर माह में 99 बच्चे अस्पताल में उपचार के दौरान काल का ग्रास बन गए। इन मौंतों पर शासन-प्रशासन से लेकर राजनीतिक दलों में प्रदेश से लेकर राष्ट्रीय स्तर पसरा गहरा सन्नाटा राजनीति के प्रदूषित एवं स्वार्थीपन को दर्शाता है। मीडिया में हुई हलचल से अस्पताल प्रशासन और सरकार की नींद भले ही खुली हो फिर भी अस्पताल की दशा सुधारने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए। हर महीने बच्चों की मौत अस्पताल में हो रही है। इसके बाद भी अस्पताल में न तो पर्याप्त जीवनरक्षक उपकरण है, न ही पर्याप्त बेड उपलब्ध है। हालात यह है कि एक ही बेड पर दो से तीन बच्चों का उपचार किया जा रहा है। ऐसे में सवाल यही उठता है कि कोटा के इस अस्पताल में बच्चे उपचार कराने के लिए आ रहे हैं या दूसरे बच्चों की बीमारियां घर ले जा रहे हैं या फिर मौत के ग्रास बन रहे हैं।
अस्पताल के एनआइसीयू में सेंट्रल आॅक्सीजन लाइन तक नहीं है। गंभीर चिकित्सा वार्ड में बार-बार सिलिंडर लाने से संक्रमण का खतरा रहता है। इस मुद्दे को राजनीति से ऊपर उठकर देखना चाहिए और बच्चों का जीवन बचाने के लिए आवश्यक उपकरण, संसाधन व पर्याप्त मेडिकल स्टाफ अस्पताल में तैनात करना चाहिए। गौरखपुर, अहमदाबाद और नाशिक के बाद कोटा में बच्चों की सामूहिक मौत होना यही सिद्ध करता है कि सरकारें और अधिकारी पुरानी घटनाओं से कोई सबक नहीं लेते। अपनी कमियों एवं कमजोरियों से सबक नहीं लेती। इस बात को अगर दरकिनार कर दिया जाए कि किस पार्टी की सरकार है या नहीं है, तो भी यह सवाल बनता है कि इसकी जिम्मेदारी क्यों न तय की जाए? राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को विकासपुरुष माना जाता है, क्या बच्चों की सामूहिक मौत की घटना उस विकासपुरुष एवं विकास के माॅडल का हिस्सा है? क्या राजस्थान में चिकित्सा व्यवस्था दूसरे तमाम राज्यों से बेहतर है? यदि उत्तर सकारात्मक है तो ऐसी लापरवाही का होना गंभीर मामला है। राज्य सरकार को यह देखना चाहिए कि आखिर किस स्तर पर व्यवस्था में चूक हुई है। सिर्फ कारण गिना देना बहानेबाजी से ज्यादा कुछ नहीं है। इन घटनाओं पर राजनीतिक बयानबाजी भी नहीं होनी चाहिए, आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला भी नहीं होना चाहिए। ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण एवं चुनौतीपूर्ण त्रासद घटनाओं की पुनरावर्ती न हो, बस इसकी ठोस व्यवस्था जरूरी है।
एक सौ चार बच्चों की मौत हुई, अस्पताल का कहना है कि मरीज बच्चों को अस्पताल में भर्ती तब कराया गया था जब उनकी हालत ज्यादा खराब थी, जब निजी अस्पतालों को लगता है कि अब वे मरीजों का इलाज नहीं कर पाएंगे तो उन्हें वे सरकारी अस्पताल भेज देते हैं। अस्पताल के अधिकारियों ने यह भी कहा कि बच्चे देहात क्षेत्र से लाए गए थे, लेकिन यह सब कोई मान्य बहाना नहीं है। कारण कुछ भी रहे हों, शिशुओं की मौत काफी दुखद है, चिकित्सा व्यवस्था पर एक बदनुमा दाग है।
कोटा के जेके लोन चिकित्सालय में बच्चों की मौत पर काफी हंगामा हुआ है। वहां बच्चों की मौत ऑक्सीजन की कमी से हुई। कहीं डाक्टरों की कमी, तो कहीं दवाइयों की उपलब्धता न होना, कहीं पर्याप्त मेडिकल संसाधन न होना इस तरह की दर्दनाक मौतों के कारण बने हैं। लेकिन प्रशासन बच्चों की मौत के जो कारण बता रहा वे केवल लीपापोती है। कोटा में अहमदाबाद एवं गौरखपुर जैसा कांड क्यों हुआ? इतने कम अंतराल के बाद इस तरह की घटना होना अनेक सवाल खड़े करती हैं। सवाल व्यवस्था में सुधार का है। सवाल पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराने का है। सवाल बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने का है, सवाल डाक्टरों एवं अधिकारियों की जवाबदेही सुनिश्चित करने का है। इन सब दृष्टियों से स्वास्थ्य तंत्र में सुधार के बारे में केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को नए सिरे से सोचने की जरूरत है। इस संबंध में कई और पहलुओं को भी ध्यान में रखना होगा।
इतनी बड़ी संख्या में बच्चों की मौत ने किन्हें आन्दोलित किया है, यह एक लम्बी बहस का मुद्दा है। लेकिन इतना तय है राजस्थान सरकार इस बदहाली पर गंभीरता का परिचय देने की बजाय इसे विपक्ष की बदले की राजनीति बता रही है। विडम्बनापूर्ण तो राजस्थान के मुख्यमंत्री का यह बयान है कि इतने कम समय में इतनी बड़ी संख्या में बच्चों की मौत कोई नई बात नहीं। उनके स्वास्थ्य मंत्री ने भी यह कहने में संकोच नहीं किया कि ऐसा तो होता ही रहता है। ऐसे बयान संवेदनहीनता एवं अमानवीयता की पराकाष्ठा ही हैं। एक ओर तो अपने देश में सरकारी स्वास्थ्य ढांचे की दशा बहुत दयनीय है और दूसरी ओर राज्य सरकारें स्वास्थ्य-ढांचे में सुधार के लिए कोई ठोस कदम उठाती नहीं दिख रहीं। यद्यपि कई शहरों में एम्स जैसे अस्पताल बन रहे हैं लेकिन इस बात से सभी परिचित हैं कि दिल्ली के एम्स में गंभीर बीमारी से ग्रस्त मरीजों के आप्रेशन के लिए दो-तीन साल की लम्बी प्रतीक्षा करनी पडती है। यह देश का दुर्भाग्य नहीं तो क्या है कि भारत का सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च लगभग 1.3 फीसद है, जो ब्रिक्स देशों में सबसे कम है। फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि हमारी सरकारें लोगों के स्वास्थ्य के प्रति सचेत हैं और स्वास्थ्य के मुद्दे को संज्ञान में ले रही हैं।
राजस्थान की समृद्धि एवं सुशासन की गाथाएं सुनाई जा रही हैं। यह कैसी तरक्की है? यह कैसा विकास है? यह कैसा सुशासन है? यह कैसी गौरव गाथाएं हैं? जहां ऐसे बच्चे पैदा हो रहे हैं जिनका वजन बहुत कम है। इसका एक अर्थ यह भी है कि राजस्थान का ग्रामीण क्षेत्र अब भी कहीं ज्यादा उपेक्षित है। वैसे भी नवजात बच्चों की मृत्यु के मामले में भारत की स्थिति बहुत चिंताजनक है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में बाल मृत्यु-दर की स्थिति भयावह है। 2015 में 2.5 करोड़ बच्चों ने जन्म लिया था, जिनमें से बारह लाख बच्चे पांच साल की आयु पूरी होने से पहले ही मर गए। गरीबी उन्मूलन और महिलाओं के उन्नयन की तमाम योजनाएं होने के बावजूद यह स्थिति परेशान करने वाली है। विडम्बना यह है कि शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में हमारी सरकारों ने जितनी जरूरत थी, उतनी चिंता नहीं की। विडम्बनापूर्ण तो यह भी है कि इन दोनों बुनियादी क्षेत्रों को निजी क्षेत्रों के हवाले कर सरकार निश्चिंतता की सांसें ले रही हंै, जबकि निजी क्षेत्र के लिये यह व्यवसाय है, मोटा घन कमाने का जरिया है। भला वे कैसे गरीब एवं पिछडे लोगों को लाभ पहुंचा सकती है? दोनों क्षेत्रों में निजीकरण बढ़ना सरकारों की असफलता को दर्शाता है। अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए कत्र्तव्य को गौण कर दिया है। इस तरह से जन्मे हर स्तर पर भ्रष्टाचार ने राष्ट्रीय जीवन में एक विकृति पैदा कर दी है और इसी विकृति के कारण न केवल स्वास्थ्य तंत्र लडखड़ा गया है बल्कि मासूम बच्चे मौत के शिकार हो रहे हैं।
(ललित गर्ग)
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