गांधी ने फिर बचा लिया

रासबिहारी गौड
ध्यान से सुनो! लोकतंत्र का पौराणिक अट्टहास..! हर पल दुर्घटना घटने के अंदेशे, हमें कभी सोते से जागते हैं,तो कभी जागते हुए सुला देते हैं।
30 जनवरी जब देश गांधी की शहादत को याद कर रहा था एक बार फिर गांधी में हमें अपने तरीके से बचा लिया। पाकिस्तान, हिंदुत्व, इस्लाम की तर्ज़ पर शाहीन बाग, जे.एन.यू ,जामिया भी सत्ता शिखर पर पहुँचने की सीढ़ी बन चुके हैं।प्रश्न पीछे छूट गया है कि वहां क्या सही?क्या गलत है? उन्हें मिटाने का एकमात्र एजेंडा राष्ट्रवाद की अनिवार्य अवधारणा से बन चुकी है ।ैं। परिणाम सबके सामने हैं- एक सत्रह वर्ष का लड़का पिस्तौल लेकर खुले आम उन्मादी नारे लगता हुआ राजधानी के प्रांगण में हिंसा के तांडव को आमंत्रित करता है। किंतु सफल नहीं होता, क्योंकि हमारे पास गांधी की विरासत मौजूद थी।
एक सरसरी नजर घटनाक्रम पर,,। युवक, हाथ मे पिस्तौल, नफ़रत से भरे आह्वान, सामने आंदोलनरत समूह , पीछे पुलिस के सिपाई और लाइव कवरेज करते हुए टी.वी.के अनेक चैनल,,। मानो, सब कुछ पूर्व निर्धारित, प्रायोजित! सोचा गया होगा, मानवीय स्वभाव है , कोई तो उकसावे में आएगा। हिंसा की चिंगारी फूटेगी और उसे आग में तब्दील कर दिया जाएगा।पुलिस त्वरित कार्यवाही करेगी। लाठी चार्ज, अश्रु गेस या हवाई फायर या सीधी मुड़भेड़,,। जो भी हो, आवाज़ का आंदोलन कुचल दिया जाएगा। उसकी आड़ में सारे शाहीन बाग ख़ुद ब ख़ुद बुझ जायेंगे या बुझा दिए जायेंगे।सम्भवतः धारा 144 या कर्फ्यू भी लगाया जा सके,चुनाव रोके जा सके,,। कोई भी ऐसी संभावना,यदि उस उन्मादी युवक के प्रतिउत्तर में हिंसा होती तो प्रतिहिंसा के सारे तर्क धर्म की गोद मे जा बैठते। लेकिन गांधी यहाँ खड़े थे,,। कोई हिंसा-प्रतिहिंसा नहीं हुई। पुलिस और मीडिया को अपेक्षित खुराक नहीं मिली। टी वी चैनल युवक और उनके हाथ में लहराती पिस्तौल के साथ उन्माद का सड़ा हुआ मवाद प्राइम टाइम में खाली समय को बांटते रहे। दिल्ली बच गई। देश बच गया। एक बार फिर 30 जनवरी को गांधी ने अपनी मौत से कट्टर साम्प्रदायिकता को अपने मंसूबो में कामयाब नहीं होने दिया।

*रास बिहारी गौड़*

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