वैचारिकी- दीया जलाने को बेकरार

*होना तो यह चाहिए था कि हम अपनो के दुःख दर्द को बाँटते हुए उनके अंधेरों से मिलकर लड़ते।* लेकिन हम तो आभासी अंधेरों में सामूहिक जगमग के साथ अपना दीपोत्सव मनाने निकल पड़े हैं। आखिर क्यों..? पूछते हैं…अपने आप से..?
*ताली, थाली, शंख, बत्तियां. के बीच..!* –
1. हम एक पल के लिए नहीं सोच रहे कि ब्लॉक् डाउन में उस रिक्शावाले, रेहड़ीवाले, या दिहाड़ी मजदूर के घरों का चूल्हा बुझे हुए चेहरों से आग मांग रहा है।
2. हम नहीं देख पा रहे कि पेट की मजबूरी के लिए सैकड़ों मील दूर बसे अभिभावको या बच्चे कैसे सो पा रहे होंगे, जिनके दरवाजों पर हर पल अशुभ आशंकाऐं दस्तक देती रहती हैं।
3. हम स्वास्थ्य या सुरक्षाकर्मी की माँग को ताली,थाली या शंख के शोर में अनसुना कर रहे हैं जबकि वह देवदूतों की मानवता के लिए गुहार है।
4. हम महामारी से पीड़ित या मृतक के प्रति शोक भूलकर, अपने डर को राजा के डमरू से भगा रहे हैं।
4. हम विकसित देशों की बदनसीबी पर अपने अज्ञान के वर्चस्य में अपना वर्तमान और भविष्य दोनों दांव पर लगा रहे हैं।
*दरअसल हम लाशें गिनते हुए लाशों में तब्दील हो चुके हैं।* यही वजह है कि हमें ना कोई जलती चिता दिख रही और ना ही किसी पत्थर के नीचे दबी कब्र की पुकार सुनाई दे रही है। *अब तो आप समझ ही गए होंगे कि हम पेट की आग का कोई जिक्र क्यों नहीं कर रहे और अपनी अनाम कब्रो पर अपने अपने हाथों से दीया जलाने को क्यों बेकरार हैं।*

*रास बिहारी गौड़*

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