सवाल शब्द से जुड़े गांभीर्य और गरिमा का

रास बिहारी गौड़
मित्रो पिछले कुछ दशको से हिंदी कविता में एक अनिष्टकारी अलगाव पैदा हुआ है।मंच के कविगण छपने वाले कवियों को और छपने वाले कवि मंच वालों को कवि ही शुमार नहीं करते।मंच से जुड़े एक कवि का कथन आज भी मेरी स्मृति में वाबस्ता है “बने रहिए आप महाकवि,लेकिन लोक में तो आज भी कविता हम जैसों के बूते ज़िंदा है।उधर कई-एक महाकवि मंच का नाम सुनते ही मुँह बिचकाने लगते हैं। जब कि निराला-बच्चन तक ने मंच से कविता पाठ कर अच्छे अर्थों में वाहवाही लूटी थी।यदि मंच के हालिया पतन को दर-किनार करें तो भी मंच ने कवियों को सीधे लोक से जोड़ने का महत्वपूर्ण काम किया ही है।मित्र कवि रास बिहारी गौड़ के कविता-संग्रह ‘किसी दिन लिखूँगा कोई कविता’ से गुज़रते हुए यह ख़याल मेरे मन में आया।मंच हो या फिर पत्र-पत्रिकाएँ असल सवाल तो शब्द-गांभीर्य और उससे जुड़ी गरिमा का है।ज़ाहिर है उससे कोई खिलवाड़ करे, क्षम्य नहीं है।

इसे लेकर उर्दू मुशायरों ने एक जमाने तक बेहतर संतुलन बनाये रखा।यदि वहाँ मज़ाहिया चीज़ें जगह पाती रहीं तो गंभीर शायरी को भी तवज्जो मिली।लेकिन पिछले कुछ सालों से वहाँ भी जिस तरह का हाय-हल्ला बरपा है वह यक़ीनन बेहतर शायरी को नुकसान पहुँचाने वाला है।ऐसे में उन कवियों का महत्व बिलाशक बढ़ जाता है जो दोनों तरह की अतियों से बचते हुए आज कविता रचने के दुसाध्य कर्म को साध रहे हैं।यहीं आकर रास बिहारी गौड़ जैसे कवियों की महिमा बढ़ जाती है।

जो लोग रास बिहारी गौड़ के किये-धरे से वाक़िफ़ हैं वे जानते हैं कि हिंदी कविता के इस अनिष्टकारी अलगाव को पाटने में उन्होंने महति भूमिका निभाई है।मंच संचालन के जिंदा अंदाज़ से लेकर बेहतर कविता के कथ्य और उसकी अदायगी दोनों में उन्हें महारत हासिल है। इस दिशा में अपना झंडा बुलंद करते हुए वे न केवल हिंदुस्तान की सरज़मी,बल्कि दुनिया के कई दूसरे मुल्कों तक भी गए हैं।

कवि रास बिहारी गौड़ की कविताओं का कैनवास कितना विस्तृत है इस सरणी में जाना दिलचस्प होगा।वहाँ मिट्टी में जीते-मरते लोग हैं, जीवन की आपाधापी के बीच संवेदना को बचाते पिता,बेटी से लेकर माँ के मुकाम तक पहुँचती स्त्री है तो उसके बहुविध जीवनानुभवों का खट्टा-मीठा संसार भी।वह चाहे गूँगी आवाज़ों में खोए प्रेम के ढाई आखर हों या फिर रिश्तों के बेहतर निर्वाह के बूते जिंदा रहने के सबूत जुटाती जीवन-सामर्थ्य ,रेल के साधारण दर्जे में की गई यात्रा से जुड़ी स्मृतियां,
यात्रियों के जिंदा संवाद,परस्पर किये अच्छे-बुरे सलूक़,और अब इस सफ़र के दरमियां गुमशुदा होती जारही सहयात्री की पहचान भी।आख़िरी ट्रेन का इंतज़ार करते बुजुर्ग दम्पत्ति,फ्लैट संस्कृति और जीवन का सिमटता संवाद, सुने के बजाए अनसुना बहुत-बहुत बोलते परिवार,फीनिक्स सा मरना-जीना,जीवन की सनातन प्यास और आदमी के भीतर का मरता पानी,लाशों के कारोबार से जुड़ी सत्ता की क्रूर संस्कृति और आज उसके आगे पस्त दिखती सी जीवन की करुणा,जीवनदायी रंगों का सिमटता सिलसिला, समकालीन समय में प्यार करने के कारणों का लगातार नफ़रत में बदलना,
जीवन के शोर में अब भी मर्मपगी आवाज़ की शिनाख़्त को पहचानने की तिश्नगी,लोकतंत्र के लिए निहत्थी संघर्ष करती शर्मिला इरोम,दुनिया में दिन-ब-दिन बढ़ते गुस्से के कारण और दर्द की असली वज़हों को लेकर व्यापती चुप्पी, खाली कुर्सियों का कोरस,तकनीक के बढ़ते चलन और नीचे खड़े आदमी को पीछे मानने का बदगुमान,
सेना और समूचे विश्व में युद्धों को लेकर बढ़ता उन्माद,भवनों का बढ़ती भव्यता और आत्मीयता का सिमटता संसार,खून सने अख़बार,शादी के भव्य समारोह आत्मीयताओं की लगातार बढ़ती छीजत,फोटो-फ्रेम और उनके अवशेष, स्मार्ट-सिटी और उनके स्मार्ट पार्कों से बहिष्कृत होते पेड़,परिंदे और पुराने लोग,इंस्टेंट का झकझोरता जादू,आज और अब के जीवन के लगातार बढ़ते डरों का सिलसिला, अकेलापन और भीड़ की संस्कृति,कब्रिस्तानों सा देशों का विभाजन ,किताबों का सिमटता संसार -पर ऐसे में भी भीतर के गुमशुदा आदमी को खोजती एक कवि की अब भी बची तलब,हम क्यों लिखते हैं कविताएँ जैसा सनातन प्रश्न,मरती भाषा..फिर भी किसी दिन लिखूँगा कोई कविता जैसी कवि-ज़िद …और भी न जाने कितने जीवन सन्दर्भों को समेटे है ये कवि रास बिहारी गौड़ का यह कविता-संग्रह…

लेकिन इस सबमें महत्वपूर्ण बात है उनकी अचूक जीवन आस्था। अपनी विरल सृजनात्मकता में वे जीवन की ठोस प्रतिबद्ध सकारात्मकताओं को तरह देने में कहीं नहीं चूकते।एक सच्चे कवि की तरह वे हर-हमेश वंचित-पीड़ित के साथ हैं।वह चाहे सामाजिक विसंगतियों की बात हो या फिर स्त्री की संघर्ष-गाथा’ वे अपनी पक्षधरता का स्पष्ट इज़हार करते हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह मर्म भी ठीक से समझ आता है कि वे जिस तरह मंच पर अपने पाठ में श्रोताओं में प्रबल उद्वेलन जगाने की सामर्थ्य रखते हैं ठीक उसी तरह पाठकों को भी जीवन की ज़रूरी संवेदना से सिक्त करने और उससे जुड़े ज़रूरी सवालों से रूबरू कराने की विरल सिफ़्त भी रखते हैं।मानवीय जीवन मूल्यों की सशक्त पैरोकारी और यथास्थिति को तोड़ने की उनकी कवि कोशिश को उनकी हर कविता में साफ़ देखा जा सकता है। साहित्यिक के किसी ख़ास मूवमेंट की बजाए क्योंकि उनकी कविता जीवन से सीधे जुड़ी है अतः कथ्य की बात हो या फिर बयानी की दोनों ही जगह वे जीवन की उम्मीद से जुड़े कवि हैं।मंच के जीवित संस्पर्श के चलते उन्होंने अपनी कविताओं के लिए जो जिंदा भाषा विकसित की है-वह छपास से जुड़े कवियों के लिए भी सीखने की चीज़ है।

यहाँ आप मुलाहिज़ा फ़रमायें जीवन से लबरेज़ उनकी कविता
‘साधारण दर्ज़ा’ की रेल यात्रा को और सोचिए कि कविता में हम अपने तीसमारखांपन को लेकर चलते कैसे और कहाँ-कहाँ चूकते रहे हैं:

साधारण दर्जा

हम सब रेल के साधारण दर्जे में सफ़र कर रहे हैं
जो नहीं कर रहे हैं उनकी स्मृतियों में यह दर्जा
ओझल होकर भी उसी तरह जिंदा है
जैसे स्टेशन पर छोड़ने आये
किसी परिजन का हवा में हिलता हाथ
दृष्टि में दूर होकर भी देर तक हमारे साथ चलता है

हम किसी भी दर्ज़े में क्यों न हों
हमारे भीतर साधारण दर्ज़ा हमेशा रहता है
जैसे अकेले रहते हुए भी रहता है सफ़र का अहसास
गाड़ियों में चलते हुए सड़क पर पैदल घूमने का विचार

ख़ामोशी ओढ़े किसी से ढेर सारी बातें करने का मन
हाँ, यह वही दर्ज़ा है
जिसमें पाँव रखने या साँस लेने की भी जगह नहीं होती
फिर भी हर स्टेशन पर कुछ यात्री अंदर आ ही जाते हैं
उनके आने पर लगता है कि वे हमारे हिस्से की जगह हड़प रहे हैं
हमारी हवा पर अपना हक़ जता रहे हैं
वे जो दुनिया में सबसे ज़्यादा ग़ैर-ज़रूरी हैं
उनका एक पैर पर खड़ा रहना भी हमें बेतरह थका देता है

रगड़ खाते शरीर और पसीने की मिश्रित दुर्गंध के बीच
किसी एक से टकराती हैं नज़रें
नज़र नज़र में चार की सीट पर
छठा,सातवां या आठवां यात्री बैठा देती है
और हम बतियाने लगते हैं
देश की राजनीति,महँगाई, तौबा ये गर्मी
कहाँ जाना है?क्या करने जा रहे हैं?

भीड़ को ये चर्चा उसी तरह जोड़ देती है
जैसे रेल के डिब्बों को जोड़ देती हैं रेल-यांत्रिकी
धीरे -धीरे आपस में खुलते हुए
खुल जाते हैं खाने के टिफिन,पोटलियां, और बिस्कुट के पैकेट
सूखी चटनी,हरी सब्ज़ी, बासी पूड़ियाँ
आपस में अदला-बदली होते हुए मुस्काती हैं
जानते हैं पेट के रास्ते कहीं भी पहुँचा जा सकता है

तभी अचानक किसी यात्री का स्ट्रेशन आ जाता है
या आने वाला होता है और वह सामान बाँधने लगता है
ठसाठस भरे डिब्बों में उतरते हुए
वह अपनी खाली जगह छोड़ जाता है
जो बहुत जल्द फिर से भर जाती है
पर जगह अपने खालीपन के साथ वहीं मौजूद रहती है
जैसे मौजूद रहता है मुँह में उस चटनी का स्वाद
जो पानी पीने के बाद भी जीभ से चिपका रहता है
कितनी खाली जगह साथ लेकर चलता है
साधारण दर्जे का यह भीड़ भरा डिब्बा
एक जगह जाकर पूरी तरह खाली हो जाता है
उस आदमी की तरह जो आजकल इस दर्ज़े में
नहीं चल रहा है

सवाई सिंह शेखावत
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