एक दिन फक़ीर के साथ _____ नन्द ज़वेरी

संस्मरण-
फकीर भिखारी नहीं होता, जैसे आम जाना जाता है. सिंध में फक़ीर उसे कहते हैं, जो किसी भी मज़हब से जुड़ा हुआ नहीं होता, वह ला-कूफी होता है. ला-मज़हब मज़हबी होता है.

Amar Jaleel
क़ाज़ी अब्दुल जलील जिसे हम साहित्क संसार में अमर जलील के नाम से जानते हैं, वह सिन्धी साहित्य में शिखर का कहानीकार है. वह न सर्फ़ अनोखा कहानीकार हैं, पर अनूठा इन्सान भी है. “मैं एक फक़ीर हूँ.” यह कहकर अमर जलील अपना परिचय देते हैं.
यह फक़ीर जिस समाज का अंग है, वहाँ मांसाहारी होना आम चलन है, पर यह साहिब शाकाहारी हैं। न बीड़ी, न सिगरेट, न व्हिस्की, न ब्रांडी, कुछ भी नहीं पीते। केवल सिन्धी पकोड़े और चाय, खाते और पीते / का सेवन करते हैं. वह भी एक अनुशासन के अंतर्गत. अनुशासन उनके जीवन का स्वभाव है, आदत नहीं. आप लिखते भी स्वभाव से हैं. इन्सान की स्वाभाविकता इन्सान को क़ुदरत से मिली हुई है, और आदत इन्सान समाज में रहते हुए अपनाता है. कुदरत का कानून जिसे काफ़िर भी न नहीं कह सकता है. क़ुदरत सनातन है, क़ुदरत का क़ानून भी सनातन है, क़ुदरत के नियमों का पालन करना इंसान का सनातन कर्तव्य है. जीवन मूल्यों को भी अमर जलील किसी सिद्धांत से जोड़ कर नहीं देखते, पर प्रकृति के क़ानून से जोड़ कर देखते हैं. इसी कारण आप अनूठे हैं.
अमर का स्वभाव फकीरना है. जिस कारण यह शख्स मज़हब रहित मज़हबी है. जैसे फक़ीर दाता का चुनाव नहीं करता है, वैसे ही अमर जलील मनुष्यता का चुनाव करते हुए किसी मज़हब का चुनाव नहीं करता है. आप वहां भी प्रकृति से ही दिशा लेते हैं.
अमर की एक कहानी है जिस में एक हिन्दू किरदार डा. भगवानदास, मस्जिद और मंदिर में फर्क़ न रख कर, अपनी समस्त दौलत मस्जिद के निर्माण के लिए दान में दे देता है. और कट्टरपंथी मुल्ला हिन्दू की उदारता को न क़बूल करते हुए भी उसके अर्पित दौलत को क़बूल कर लेता है.
जैसे मैंने अमर जलील को जाना है वह एक ‘खाली इंसान’ है. वह धर्म रहित धर्मी इन्सान है. अमर जलील कभी भी, कुछ भी प्रकृति यानि क़ुदरत के कानून अनुसार स्वीकार कर लेता है. और सदा फक़ीर रहता है, सदा पात्र रहता है, पाने के लिए सदा तैयार रहता है, ठीक जेसे भरा हुआ पानी का मटका कभी भी पात्र नहीं हो सकता, केवल खाली खली मटका ही पात्र हो सकता है. भरा हुआ मटका अपात्र ही रहता है.
वह जो सदा पाने की योगता रखता है वही पूर्ण हो सकता है. ठीक वेसे ही अमर जलील पूर्ण साहित्यकार है, जो पाने की योगता रखता है. और जो पाने की योगता रखता है, वही देने की योगता भी रख सकता है. अमर जलील जब कहता है कि “मैं फक़ीर हूँ”, तो उसका इतना ही अर्थ है कि मैं खाली हूँ, मैं पात्र हूँ। और पाने के लिए मेरी कोई सीमाएं नहीं हैं. अमर जलील एक एसा वजूद है, जो सदा होता रहता है, और जो सदा होता रहता है, उस की कोई सीमा नहीं होती. कोई भी अपना परिचय देते हुए, जब कहता है कि मैं फलां फलां हूँ, तो उसका अर्थ इतना ही होता है कि मैं अभी जो भी हूँ पूर्ण हूँ, भरा हुआ मटका हूँ, अब मैं कुछ भी आगे पाने के योग्य नहीं हूँ. मगर जब वह कहता है कि मैं फक़ीर हूँ तो उस का अर्थ यही हो सकता है कि मैं अब भी पाने के लिये योग्य हूँ, खाली हूँ, पात्र हूँ.
शायद वह २००९ का साल था जब वह मेरे घर मेहमान बन कर आये थे. तब मैंने उनसे पूछा था “आप ख़ुद को फक़ीर क्यों मानते हैं?”
अमर खामोश रहा.
मैंने फिर वही सवाल दोहराया. उसने कोई उतर नहीं दिया. और मैं भी उत्तर न पाकर खामोश रह गया.
दूसरे दिन फिर मैंने सवाल किया. ‘शाह लतीफ़ मुसलमान थे या सूफ़ी?”
“वह सूफ़ी था “ उसने उतर दिया
“क्या वह मुसलमान नहीं था ? “
“वह मुसलमान था, यह लोगों का नज़रिया है, और शायद लोग सही भी हों।”
“लोग……. ?”
“वह हिन्दू था यह भी लोगों का कहना है” अमर ने कहा.
मैंने फिर सवाल करते कहा “जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि?”
“हाँ शायद ऐसा ही है ….. दृष्टि की सीमाएं होती हैं ….. और आकाश की कोई सीमा नहीं होती.” और उसने आगे कहा “सूफ़ी सदा सूफ़ी ही रहता है, फक़ीर ही रहता है, खाली ही रहता है, और आजीवन सूफ़ी रहता है. सूफ़ी न मुसलमान होता है, न हिन्दू होता है. सूफ़ी सदा लावजूद होता है.”
“पर लावजूद होना भी तो वजूद ही है ?” यह मेरा सवाल था
“हाँ ….. शायद लावजूद भी वजूद ही है, हकीकत में सूफ़ी उस के भी पार होता है ….!.”
तब मैंने कहा …..’शायद हमारे पास सूफ़ी की व्याख्यान के लिए शब्द नहीं है, हम उस का शब्दों में वर्णन नहीं कर सकते हैं, क्योंकि सभी शब्द सगुण होते हैं, मूर्त होते हैं, और सूफ़ी तो नगण्यता (Nothingness) होता है, नगण्यता यानि ‘कुछ भी नहीं’ को ही अपना कर जीता है ……. शायद हम उसे फक़ीर भी नही
कह सकते, …… मैंने रुक-रुक कर कहा….. शायद हम उसे साक्षी कह सकते हैं जो किसी के साथ जुड़ा हुआ नहीं होता? “इन्सान का रूह अल्लहा के रूह का अंश है, यही क़ुरान कहता है, आत्मा-परमात्मा का वंश है, गीता में भी ऐसा ही कहा गया है. क्या किया हम यह कह सकते हैं कि सूफ़ी खालिस रूह है, आत्मा है, चेतना है !”
मगर अमर खामोश रहा.
मुम्बई में आते ही उसने सब से पहले पुणे जाने की बात कही, मैंने समझा शायद वहां के सिन्धी साहित्यकारों से मिलना चाहता है. पुणे फोन करके मैंने होटल बुक किया और पुणे का प्रोग्राम बनाया लिया. पुणे जाते हुए हम उल्हासनगर भी गये. वहाँ के साहित्यकारों ने उनके आतिथ्य में भोजन व्यवस्था कर रखी थी। वह सब के साथ प्रेम से मिला जैसे परिवार में मिलना जुलना होता है. वह हमसे बिलकुल भी भिन्न नहीं था, ऐसा सभी ने महसूस किया.
उसी शाम, पुणे में हम साधू वासवानी के आश्रम में गए. मैंने उनका सब के साथ परिचय कराते हुए इतना ही कहा कि आप अमर जलील है, और हमारी सिंध से आये हैं। कहने भर की देर थी, सभी ने उन्हे घेर लिया। हरेक के मन में सवाल पनप रहे थे। सत्संग के बाद उनका स्वागत हुआ, जो बिलकुल अनूठा था. सभी उनके साथ बातें करना चाहते थे जो मुमकिन नहीं था. आखिर यह तय हुआ कि अमर सब को संबोधित करेंगे।
अमर जलील ने अपनी फक़ीरी भाषा में कहा “क्या कहूँ क्या न कहूँ, बस इतना ही कह सकता हूँ कि आज मैं अपने बिछड़े परिवार के बीच में हूँ.” ऐसा कहते हुए उनकी आखें नम हो गईं।
सिंध भूमि का गुण-गान करते हुए अपनी व्याख्यान में उन्होने कहा “ बटवारे के समय हिन्दू सिन्धी सिंध छोड़ कर यहाँ आये, पर वे अपने साथ नफ़रतें, दुश्मनियाँ, बदले की भावना को ले कर नहीं आये, वहीं छोड़ आए। वे अपने साथ शाह लतीफ़ और सचल सरमस्त के सूफ़ी मत की हिदायतें और प्यार ले कर आये। सिन्धी प्यार के मसीहे हैं. सिन्धी हिन्दू हमारे लिए विभाजन के पश्चात प्यार और बिछड़ने के दर्द में डूबी मुहब्बतें छोड़ गए हैं. सिंध के हिंदुओं ने हिंदोस्तान जाकर वहां के मुसलमानों को कभी कोई तकलीफ़ दी है कभी ऐसा सुनने में नहीं आया है। हम सिन्धी शांति के पुजारी हैं, इन्सान को गुटों में नहीं बांटते, यही हमारी संस्कृति की वशेषता है. इस संस्कृति को अगर सतही तौर पर देखेंगे तो इतिहास का बड़ा नुकसान होगा, पर अगर ईमानदारी और गंभीरता से इसकी गहराइयों में जाकर देखेंगे, समझेंगे तो हम सिंधियों के मिट्टी के पीर भिट्टाई शाह लतीफ़ एवं सचल सरमस्त के संस्कारों, सभ्यता का रंग चढ़ा हुए पाएँगे.”
उसी शाम, पुणे के साहित्यकारों के बीच अमर जलील ने सिंध धरती का संदेश देते हुए अमन और शांति की बातें की. दूसरे दिन मैंने उनसे सवाल किया “पुणे में किसी खास व्यक्ति से मिलना है?”
“हाँ पुणे से मिलना है, पुणे में मेरी माँ का जन्म हुआ था…..”
मैंने चुप्पी साध ली।
“मैं अकेला नहीं हूँ, जिसे धरती का दर्द प्रताड़ित करता है. मेरे जैसे और भी कई है जिन्हें धरती का दर्द सताता है. जब यह दर्द इन्सान को सताता है, तब वह इन्सान उस धरती की ओर खिंचा चला जाता है, जहां जाकर उसे सुकून मिलता है.”
आगे बात को खुलासा करते हुए अमर ने बताया – “ जब मेरी माँ दस या ग्यारह साल की थी तब वह पुणे को छोड़ कर सिंध आई थी. मैं इसीलिए पुणे देखना चाहता था, जहाँ मेरी माँ ने अपने बचपन के दस वर्ष गुज़ारे थे.”
पुणे की गलियों में घूमते-घूमते अमर ने मुझसे कहा “मुझे ऐसा क्यों आभास हो रहा है कि यहाँ का सब कुछ देखा-देखा सा लगता है?”
“यह आप की माँ के डी. एन. ए (DNA) है, जो आप में भी है। वही पुणे को देख रहा है, इसलिए सब देखा-देखा लगता है .”
अमर चुप रह गया।
और तब से मैं भी चुप ही हूँ. रख-रख कर मैं अपने आप से पूछता हूँ ‘क्या कल मेरे बच्चे भी अपने पूर्वजों की जड़ों को देखने सिंध जाएँगे? ……. शायद हाँ?…… शायद नहीं? …….. तब से मैं “हाँ और नहीं” के बीच में भटक रहा हूँ. सिंध में तो रोज़ समाज बट रहा है, संकीर्ण होता जा रहा है ….. और इसी संदर्भ में मेरे बच्चे पूछते हैं “क्या वहां लोगों को मालूम नहीं है, कि इन्सान, न तो बड़े से बड़ा, …. न ही छोटे से छोटा अंक लिख सकता है?”

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