*बतंगड़*

नटवर विद्यार्थी
कभी छोटी सी बातें भी ,
बतंगड़ खूब बनती है ।
इधर भी मूँछ तनती है ,
उधर भी मूँछ तनती है ।

बड़े ही धूर्त्त होते वो ,
दरारें डालते हैं जो ।
ऐसे स्वभाव वालों में ,
परस्पर ख़ूब छनती है ।

कभी सोचा किसी ने यह,
कहाँ तक बात सच्ची है ?
बिना मौसम तभी घर में ,
अरे, नदियाँ उफ़नती हैं ।

आज़कल धैर्य तो यारों ,
किसी में भी नहीं दिखता ।
सभी तैयार बैठे हैं ,
तभी तो रोज़ ठनती है ।

बड़ा हथियार “चुप रहना”,
इसे भी आजमाओ तुम ।
कभी चुपचाप रहने से ,
बिगड़ती बात बनती है ।

– *नटवर पारीक, डीडवाना*

1 thought on “*बतंगड़*”

  1. अदभुत व अद्वितीय भाषा के साथ ……विचारों में अपना प्रवाहमान जागृत किया है निःसंदेह यह एक मुखर व स्वतंत्र भविष्य की परिणीति भाव का परिचायक है……आपके श्रेष्टतम समयानुकूल विचारों को नमन….🙏🏻🌹🙏🏻👍👍👍📈🥰

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