वैचारिकी- चुप्पियों का खँडहर

रासबिहारी गौड
” रोमन खंडहरों या पुराने मुस्लिम मकबरों बीच घूमते हुए एक अजीब गहरी उदासी घिर आती है, जैसे कोई हिचकी, कोई साँस, कोई चीख़ इनके बीच फँसी रह गई हो..जो ना अतीत से छुटकारा पा सकती हो, न वर्तमान में जब्ज हो पाती हो…। किन्तु यह उदासी उनके लिए नहीं है जो एक जमाने मे जीवित थे और अब नहीं हैं..। वह बहुत कुछ अपने लिए है, जो इन खंडहरों को देखने के लिए नहीं बचेंगे…। पुराने स्मारक या खँडहर हमें उस मृत्यु का बोध करवाते हैं, जो हम अपने भीतर लेकर चलते है। बहता पानी उस जीवन का बोध कराता है, जो मृत्यु के बावजूद वर्तमान है, गतिशील है, अंतहीन है……।.”
*निर्मल वर्मा के उक्त गद्यांश* से निकलकर समय हमसे बात कर रहा है। यह अगल बात है कि उसे सुनने, पढ़ने और देखने वाली आँखें अपनी सुविधा से निर्वात के नजारे बटोर रही है। कुछ बोलते या लिखते हुए लगता है, हम उन्हीं खंडहरों में चीख रहे हैं। हमारी भूतिया आवाजें घायल दीवारों से टकरा कर वापिस हम ही तक पहुँच रही है। आस पास बिलखती आत्मा तक को जिंदा शरीरों ने पहचानने से इंकार कर दिया है। *हमारा बच जाना, उस बहते पानी सा बच जाना है, जिसमें तैरती लाशों के कारण वह अपनी पहचान खो चुका है।*
इधर, लगातार शोर का साम्राज्य बढ़ा है। शोर में सन्नाटों के लिए उतना ही स्पेस है, जितना किसी अंधेरे में जलाई गई एक अकेली अगरबत्ती के लिए आस्था बचती है। वह अपनी चमक के लाल धब्बे के साथ मध्यम सुगंध तो फेंक सकती है, पर उजाला नहीं कर सकती। चमक के इन लाल धब्बों के बीच *हम उन चेहरो की शिनाख्त करने का असम्भव प्रयास कर रहे हैं जो समूचे जीवित समय को स्मारक में ढाल कर अमरत्व पाने के लिए लाशों के ढेर पर सिहांसन बना रहे हैं।*
यूँ हर शरीर एक काल खंड है.., उसे एक उम्र जीकर खत्म होना ही होता है। लेकिन मनुष्य के संदर्भ में शरीर से इतर जीवन की बात की जाती है और वह काल से परे जाकर जीता है। वह इतिहास और स्मृतियों में जीता है। उसकी आवाजें खाली आकाश में गूँजती हैं… , पुकारती हैं.., नस्लों से बतियाती है.., धिक्कारती हैं..। *कल हम सब भी अपनी पाषाण पहचान लिए, पत्थरो के बीच, सो गए होंगे। लेकिन स्मृति बोल रही होगी.., जीवित समय सुन रहा होगा…।*
यूँ संख्या बनकर पैदा होने वाले और उसके आधार पर कद का निर्माण करने वाले इतिहास और स्मृति को नकारते हैं..। दरअसल, वे जीवन को नकारते हैं..। मनुष्यता को नकारते हैं..। खुद के मनुष्य होने को नकारते हैं..। यही कारण है कि वे अपने और मुर्दों के बीच केवल साँसों का ही फासला मानते हैं। धड़कनों को नापने के लिए दर्द, पीड़ा, आँसू, मुस्कान की जगह यांत्रिकी पर यकीन करते हैं। वे आदमी को एक पुर्जे से ज्यादा कुछ नहीं समझते हैं। वे कौन है..? वे हमारे सामने हैं..। हमारे अपने हैं..। जिनके कारण महकते चहकते घरों में आज खंडहरों सा मातम छाया है।
*हम सब अपने-अपने डर के साथ खामोश अंधेरों को पूज रहे हैं। जबकि हमें चीखना चाहिए, चिल्लाना चाहिए, अपना नाम पुकारना चाहिए। ताकि आवाज की अनुगूँज से हम अपने जिंदा होने का अहसास पा सके। जलती हुई चिताओं पर लाशों के साथ हमारा जीना भी जल रहा है।*
हमें इस आग के सच को जानना होगा। *चिता की आग बुझाने के लिए आसुंओ से काम नहीं चलेगा.., भीतर के सूखे सोतो में गीलेपन भरना होगा.., खुद पानी बनकर बहना होगा.., मृत नहीं, जीवित पानी..। पानी के मायने समझने होंगे..। पानी को मरने से बचाना होगा।*
ध्यान से देखो, हमारे पैसे और पसीने से.., *हमारी चुप्पियों के नाम.., मकबरों की शक्ल में.., भावी खंडहरों का निर्माण हो रहा है…।* जिसका नाम सेंट्रल विष्टा प्रोजेक्ट है..।

*रास बिहारी गौड़*

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