माननीय यह बात इतना शोर मचाकर बता रहे थे कि कान के पर्दे कान से बगावत पर उतर आए थे।
वे कह रहे थे-
“भैये, इतनी शांति सदियों बाद देखी है।”
हम गाँधी जी के बंदर की तरह ही चुप रहे।
वे हमें चुप देखकर एकाएक चुप हो गए..जैसे तेज गाड़ी स्पीडब्रेकर पर ब्रेक मारकर रुक जाती है। घिसटते टायर की सी आवाज में बोले –
” लगता है आप हमें सुन नहीं रहे हैं…।”
उनके भीतर समझ जागने से हम उसी तरह सकपकाए जैसे पुलिस की विभागीय गालियों के बीच मे सर या प्लीज्.. जैसे शब्द कानों में पड़ने से घबरा जाते हैं।
हड़बड़ाते हुए तुरंत बोले-
” नहीं,.नहीं.., ऐसी बात नहीं है। ”
उस दिन झूठ बोलने के कॉन्फिडेंस की कमी बहुत अखरी। माननीय का कॉन्फिडेंस जस जा तस था-
” ऐसी नहीं..! तो कैसी बात है..? हम शांति की बात चिल्ला चिल्ला कर बता रहे हैं और आप जता रहे हैं कि हम बिना बात कोई बात बता रहे हैं।”
हमनें हिम्मत करके पूछ लिया-
” लेकिन.. आप किस शांति की बात कर हैं..?”
सवाल सुनकर उन्होंने मुझे ऐसे देखा जैसे भौंकता हुआ कुत्ता अपना भौंकना छोड़कर शिकार को गुर्राने की अदा से ताकने लगता है।
” पूरी फ़िल्म देखने के बाद पूछ रहे हो कट्टप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा..?”
कहते कहते वे खुद कट्टप्पा स्टाइल में हमें डराने लगे..। हमने महिष्मति के मिमियाते स्वर में कहा-
” नहीं साहब..! दरअसल, मैं समझ नहीं पाया कि आप किस शांति की बात कर रहे हैं। सड़क की ..! संसद की..! या सरहद की.!”
उनकी आंखों में राजसी चमक आई। चहकते हुए बोले-
” ध्यान से देखो। हर जगह शांति है। सड़क पर.। संसद पर ..। सरहद पर..। चारों ओर..। शांति..समृद्धि..खुशहाली..।”
मेरे सवाल में अपना जबाब रखकर वे उसी तरह आत्म मुग्ध लग रहे थे जैसे इन दिनों बड़े वाले नेताजी माइक पर अपनी तारीफों को जनता का प्यार समझ कर खुद ही खुद की जय बुलवाते रहते हैं।
पता नहीं कैसे और कब, मैं जनता की आवाज में बोलने लगा-
“*क्या बात करते हैं साहब..! किस सड़क पर शांति दिख रही है। गाड़ी-घोड़ो का शोर तो छोड़िए, कुचली हुई आवाजें सड़क के भीतर से चीख रही हैं..। संसद के शोर का आलम तो ये है कि शोर के बीच कोई बोलने की कोशिश करता है जुबान खींचने वाला विधेयक एक बार मे ध्वनिमत से पारित हो जाता है। जहाँ तक सरहद का सवाल है, बंदूकों से कभी बाँसुरी के स्वर नहीं निकल सकते..।”*
मेरा दबा हुआ दर्द खुदबखुद बाहर आ गया जैसे पका फोडा अपने आप फूट गया हो.. । वह मुझे इस तरह देख रहे थे मानों होलिका दहन में फिर से प्रह्लाद बच गया हो। मन ही कुतर्को के दिव्यास्त्रों खोज ने लगे। टी.वी. की बहस के दृश्य बटोर कर उनके भीतर फूटा संसदीय गालियों का सोता चेहरे से टपकने लगा।
वे मुद्दे और मुझे साथ-साथ निपटाने लगे। एक तरफा शांति व्यख्यान की बमबारी कर रहे थे-
” देश मे रहकर देश से अलग सोचते हो। बकवास करते हो..। संसद , सड़क, शमशान, सरीखे अराजक नारों से तुम जैसे लोग ही अशान्ति पैदा करते हैं..। कभी सी. ए. ए. के नाम पर तो कभी किसान बिल पर ..। कितनी भी कोशिश कर लो .। अब तुम्हारे ये चोचले नहीं चलने वाले..।”
वार इतना मारक था कि बचाव का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था.। फिर भी अपनी बात रखना जरूरी था क्योंकि उसके बिना वे और ज्यादा आक्रमक हो सकते थे।
मैंने रक्षात्मक स्वर में कहा-
“*माननीय, जो शांति आपको दिख रही है..वह आभासी है..झूठी है..प्रयोजित है..। मजदूरों की खामोशी और गंगा में तैरती लाशों की शांति को को शांति नहीं कहते हैं…और ये झूठे भाषणों का शोर क्या आपको शांति लगता ..?”*
सच को निस्तेज करने के लिए पार्टी प्रवक्ता की तरह वे तेज तेज बोलने लगे-
“आप बहरे हो..। अंधे हो.. । गूंगे..। ध्यान से देख़ो..! सुनो.. ! चारो ओर कितनी शांति है। कोई पड़ौसी चूं चाट नहीं कर रहा। कोई किसी मुद्दे पर नही बोल रहा। भुख, बेकारी, गरीबी के घिसे हुए कैसेट मौन है। यहाँ तक कि मौत पर भी कोई रुदन नहीं है। आवाजों के नाम पर सोशल मीडिया के भौंपू हैं।.. इतनी शांति ! इतना सन्नाटा..! सदियों बाद हमनें देखा-सुना है। तुम बोल रहे हो..। शांति भंग कर रहे हो। शांति व्यवस्था भंग करने के लिए तुम्हे सजा होनी चाहिए….।”
विजयी भाव से मुझे निहारते हुए उन्होंने अपना बोलना जारी रखा-
“जहाँ तक भाषण, नारे, सभाओं का सवाल है तो वे सब इस शांति के कारण ही सम्भव है..।शांति पर्व का प्रचार है..।जंगल मे मोर नचा किसने देखा..? इसलिए जंगल का मोर नचा रहे हैं..सबको दिखा रहे हैं…। खुद प्रधान मंत्री जी दिखा रहे हैं। ”
मैं समझ चुका था कि मेरा बोलना उनके लिए, देश के लिए, देश की शांति के लिए, समृद्धि के लिए, सपनों के लिए, खतरा है। मुझे गाँधी के बंदर फिर से याद आ गए। गाँधी के सच और संदेश को भूल कर मैंने उनके बंदरो का अनुसरण किया।
मुझे लगने लगा कि देश मे हर कोने में शांति है। समृद्धि है। सुख है। सच्चे मायनों में स्वर्ण युग है।
अंत मे उनको दंडवत प्रणाम करते हुए उनकी शांति वाले शोर में शामिल हो गया।
*रास बिहारी गौड़*