नमन करें क्रांतिकारी केसरी सिंह बारहठ और समर्पित परिवार को

बारहठ त्रय बंधु सर्वश्री केसरीसिंह, जोरावर सिंह व प्रतापसिंह

मूलचन्द पेसवानी. शाहपुरा
क्रांतिकारी कवि केसरी सिंह बारहठ, जिनका जन्म 21 नवम्बर 1872 में कृष्णसिंह बारहठ के घर उनकी जागीर के गांव देवपुरा रियासत शाहपुरा में हुआ। केसरी सिंह की एक माह की आयु में ही उनकी माता का निधन हो गया।
उन्होंने बांगला,मराठी,गुजराती आदि भाषाओं के साथ इतिहास, दर्शन (भारतीय और यूरोपीय) मनोविज्ञान,खगोलशास्त्र,ज्योतिष का अध्ययन कर प्रमाणिक विद्वत्ता हासिल की। डिंगल-पिंगल भाषा की काव्य-सर्जना तो उनके जन्मजात चारण-संस्कारों में शामिल थी ही,बनारस से गोपीनाथ नाम के पंडित को बुला कर इन्हें संस्कृत की शिक्षा भी दिलवाई गई।
केसरी सिंह के स्वध्याय के लिए उनके पिता कृष्ण सिंह का प्रसिद्ध पुस्तकालय कृष्ण-वाणी-विलास भी उपलब्ध था। राजनीति में वे इटली के राष्ट्रपिता मैजिनी को अपना गुरु मानते थे। मैजिनी की जीवनी वीर सावरकर ने लन्दन में पढ़ते समय मराठी में लिख कर गुप्त रूप से लोकमान्य तिलक को भेजी थी क्योंकि उस समय मैजिनी की जीवनी पुस्तक पर ब्रिटिश साम्राज्य ने पाबन्दी लगा रखी थी। केसरी सिंह ने इस मराठी पुस्तक का हिंदी अनुवाद किया था।
पूरा परिवार क्रांति की बलिवेदी पर समर्पित

त्रिमूर्ति स्मारक

केसरी सिंह को जब सुचना मिली की रास बिहारी बोस भारत में सशस्त्र क्रांति की योजना बना रहे हैं तो राजस्थान में क्रांति का कार्य उन्होंने स्वयं संभाला और अपने भाई जोरावर सिंह, पुत्र प्रताप सिंह और जामाता ईश्वर दस असियां को रास बिहारी बोस बाबु के पास भेजा। केसरी के भाई जोरावर सिंह और पुत्र प्रताप सिंह ने रास बिहारी बोस के के साथ २३ दिसंबर १९१२ को नई दिल्ली में लार्ड हार्डिंग की सवारी पर बम फेंकने के कार्य में भाग लिया, जोरावर सिंह ने रास बिहारी घोष के साथ मिलकर दिल्ली के चांदनी चौक में लार्ड हार्डिंग पर बम फेंका था जिसमे हार्डिंग घायल हो गया था। इस हमले में वायसराय तो बच गया पर उसका ए.डी.सी. मारा गया। जोरावर सिंह पर अंग्रेज सरकार ने इनाम घोषित किया पर ये अंग्रेजों की पकड़ में नहीं आये और एक सन्यासी की तरह फरार रहते हुए गांव गांव जाकर धरम और देशभक्ति का जन जागरण किया, पर अंग्रेजों से छिपने के दौरान निमोनिया होने और इलाज न करा पाने से 1939 में उनका निधन हो गया।
केसरी के पुत्र प्रताप सिंह 1917 में बनारस षडय़ंत्र अभियोग में पकडे गए और उन्हें 5 वर्ष के लिए बरेली सेंट्रल जेल में बंद किया गया था । जेल में भयानक यातनाएं दी गयी,प्रलोभन दिए गए कि वह पुरे कार्य का भेद बता दे तो उसके पिता को जेल से मुक्त कर देंगे , उनकी जागीर लौटा दी जायेगी, उसके चाचा पर से वारंट हटा लिया जायेगा पर वीर प्रताप ने अपने क्रांतिकारी साथियों के बारे में कुछ नहीं बताया। उन्होंने मरना स्वीकार कर लिया पर राष्ट्र के साथ गद्दारी नहीं की। जब उन्हें उनकी मां की दशा के बारे में बताया गया तो वीर प्रताप ने कहा था, मेरी मां रोती है तो रोने दो, मैं अपनी मां को हंसाने के लिए हजारों माताओं को नहीं रुलाना चाहता। अंग्रेज अधिकारी क्लीवलैंड ने कहा था की, इतना पत्थर दिल इंसान मैंने कहीं नहीं देखा। आखिर अंग्रेज सरकार की अमानुषिक यातनाओं से 27 मई 1918 को मात्र 22 वर्ष की आयु में प्रताप सिंह शहीद हो गए।
चेतावनी रा चूंग्ट्या 
1903 मे लार्ड कर्जन द्वारा आयोजित दिल्ली दरबार मे सभी राजाओ के साथ हिन्दू कुल सूर्य मेवाड़ के महाराणा का जाना राजस्थान के जागीरदार क्रांतिकारियो को उचित नही लग रहा था अत: उन्हे रोकने के लिये शेखावाटी के मलसीसर के ठाकुर भूर सिह ने ठाकुर करण सिह जोबनेर व राव गोपाल सिह खरवा के साथ मिल कर महाराणा फ़तह सिह को दिल्ली जाने से रोकने की जिम्मेदारी क्रांतिकारी कवि केसरी सिह बारहट को दी।
केसरी सिह बारहट ने चेतावनी रा चुंग्ट्या नामक सौरठे रचे जिन्हे पढकर महाराणा अत्यधिक प्रभावित हुये और दिल्ली दरबार मे न जाने का निश्चय किया। दिल्ली आने के बावजूद समारोह में शामिल नहीं हुए।
पग पग भम्या पहाड,धरा छांड राख्यो धरम।
महाराणा र मेवाङ, हिरदे बसिया हिन्द रै।।
घणा घलिया घमसांण, (तोई) राणा सदा रहिया निडर।
पेखँतां, फऱमाण हलचल किम फ़तमल ! हुवै।।
गिरद गजां घमसांणष नहचै धर माई नहीं।
मावै किम महाराणा, गज दोसै रा गिरद मे।।
ओरां ने आसान , हांका हरवळ हालणों।
किम हालै कुल राणा, हरवळ साहाँ हंकिया।।
नरियंद सह नजरांण, झुक करसी सरसी जिकाँ।
पसरैलो किम पाण , पाणा छतां थारो फ़ता !।।
सिर झुकिया सह शाह, सींहासण जिण सम्हने।
रळनो पंगत राह, फ़ाबै किम तोने फ़ता ! ।।
सकल चढावे सीस , दान धरम जिण रौ दियौ।
सो खिताब बखसीस , लेवण किम ललचावसी।।
देखेला हिंदवाण, निज सूरज दिस नह सूं।
पण तारा परमाण , निरख निसासा न्हांकसी।।
देखे अंजस दीह, मुळकेलो मनही मनां।
दंभी गढ़ दिल्लीह , सीस नमंताँ सीसवद।।
अंत बेर आखीह, पताल जे बाताँ पहल।
राणा सह राखीह, जिण री साखी सिर जटा।।
कठिण जमानो कौल, बाँधे नर हीमत बिना।
बीराँ हंदो बोल, पातल साँगे पेखियो।।
अब लग सारां आस , राण रीत कुळ राखसी।
रहो सहाय सुखरास , एकलिंग प्रभु आप रै।।
मान मोद सीसोद, राजनित बळ राखणो।
गवरमेन्ट री गोद, फ़ळ मिठा दिठा फ़ता।।
केसरी द्वारा रचित ये दोहे पढकर पढकर महाराणा अत्यधिक प्रभावित हुये और दिल्ली दरबार मे न जाने का निश्चय किया। और दिल्ली आने के बावजूद समारोह में शामिल नहीं हुए। बाद में 1911 में जॉर्ज पंचम के भारत आगमन पर भी मेवाड के महाराणा उनके दरबार में शामिल नहीं हुए , ये केसरी प्रेरणा का ही प्रभाव था।
राजस्थान महासभा का प्रस्ताव 
हजारी बाग जेल से छूटने के बाद अप्रेल 1920 में केसरी सिंह ने राजपुताना के एजेंट गवर्नर जनरल (आबू ) को एक बहुत सारगर्भित पत्र लिखा जिस में राजस्थान और भारत की रियासतों में उतरदायी शासन-पद्धति कायम करने के लिए सूत्र रूप से एक योजना पेश की । इसमें राजस्थान महासभा के गठन का सुझाव था जिस में दो सदन (प्रथम) भूस्वामी प्रतिनिधि मंडल (जिस में छोटे बड़े उमराव,जागीरदार) और द्वितीय सदन सार्वजनिक प्रतिनिधि परिषद् (जिसमें श्रमजीवी, कृषक,व्यापारी) रखने का प्रस्ताव था।
उत्तर-जीवन 

मूलचन्द पेसवानी

सन 1920-21 में सेठ जमनालाल बजाज द्वारा आमंत्रित करने पर केसरी सिंह सपरिवार वर्धा चले गए, जहाँ विजय सिंह पथिक जैसे जनसेवक पहले से ही मौजूद थे। वर्धा में उनके नाम से राजस्थान केसरी साप्ताहिक शुरू किया गया, जिसके संपादक विजय सिंह पथिक थे।वर्धा में ही केसरी सिंह का महात्मा गाँधी से घनिष्ठ संपर्क हुआ। उनके मित्रों में डा. भगवानदास (पहले भारतरत्न), राजर्षि बाबू पुरुषोत्तम दास टंडन,गणेश शंकर विद्यार्थी, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, माखनलाल चतुर्वेदी राव गोपाल सिंह खरवा, अर्जुनलाल सेठी जैसे स्वतंत्रता के पुजारी शामिल थे। देश की स्वतंत्रता के लिए अपना सब कुछ होम कर देने वाले क्रान्तिकारी कवि केसरी सिंह ने 14 अगस्त 1941 को हरी तत् सत् के उच्चारण के साथ अंतिम साँस ली।

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