निजीकरण की आँधी में उजड़ते दरख़्त

निजीकरण की आँधी में बड़े-बड़े दरख़्त उजड़ रहे हैं…। एक-एक कर वे सपंतियाँ बिक रही हैं जो सहकारी-सहअस्तित्व और जन- सरोकारों का प्रतिनिधित्व करती रही हैं..।
विकास की आड़ और निवेश के नारों के बीच हर कोई जानता है कि इससे आम जन का कोई हित होने वाला नहीं है…। पिछले दशकों के अनुभव बताते हैं कि निजीकरण का सीधा लाभ किसे मिलता है ..।
उड्डयन (हवाई अड्डे आदि) के बाद अब रेल और सड़क परिवहन को निजी हाथों को सौंपना और उस पर सुविधाएँ-आवृत्ति -आकर्षण बढ़ जाने का बचकाना तर्क.. *आने वाले कल का वह चित्र खींच रहा है जहाँ देश के सारे संसाधनो पर कुछेक परिवारों का ही अधिकार होगा..शेष अपने पेट की जद्दोजहद में आर्थिक दासत्व का अभिशाप भोगेंगे ..।*
लोकतांत्रिक देश में लोक के विरुद्ध इतना बड़ा फ़ैसला लेने का कारण और साहस एक बड़ा सवाल लेकर हमें ऐसे देख रहा है…जैसे किसी के हाथ से रोटी का टुकड़ा छीनने के बाद बंदरो का दल भूखे प्यासे चेहरों को चिड़ा रहा हो ..डरा रहा हो..।
यह तय है की इसके लाभांश का बड़ा हिस्सा नीति-निर्धारको नियमित मिलता रहेगा…इस नंगे सच को जानते हुए भी आम भारतीय मतदाता उद्वेलित नहीं है या फिर वह सम्मोहित भाषणों के शोर में सच नहीं सुन पा रहा है….इसका एकमात्र कारण है कि सत्ता-शिखर उस दयालु डाकू की तरह लोकप्रिय है जो रात को खुली चेतावनी के साथ गाँव के गाँव लूटता है और दिन में मंदिर की दान पेटी में थोड़ा सा धन डालकर धर्मात्मा कहलाता है ..*धर्मात्मा का हर अपराध पुण्य बन जाता है …अर्थात कि धर्म और राष्ट्र के घोल से बना नशा सोचने, समझने, देखने, सुनने की समस्त प्राकृतिक शक्तियाँ छीन लेता है ..यह हमारे भाग्य-विधाता जानते हैं..।*
भारत सरीखे बहुविध देश में जन-सरोकारों को नकार कर जनप्रिय लोकतंत्रिक नायकों का गढ़ा जाना अपने आप में एक मिसाल है..। ख़तरनाक मिसाल है ..! *अब इस रास्ते पर चलकर सदियाँ फिर से हमारे शोषण का अधिकार पा सकती हैं..।*
एक काल्पनिक उदाहरण के साथ इसकी भयावयता समझी जा सकती है- मान लीजिए कि शिक्षा, चिकित्सा, रेल,सड़क, की ही तर्ज़पर एक-एक कर हमारे नगर बेचे जाने लगे-अमुक शहर को दस साल के लिए अमुक उधोगपति को दिया जाता है ..अमुक नगर राणा का..ठाकुर का..चौधरी का ..शुक्ला का ..सैयद का ..नबाब का ..। पूँजी के बल पर खड़े ये नई रियासतें..रजवाड़े ..अपनी शर्तों पर शासन और शोषण का अधिकार पा जाएँगे (यूँ सामाजिक ताने बाने में आंशिक रुप से आज भी हैं पर उसे विधान का बल नहीं है )। इसकी एवज़ में सरकार को ढेर सारी पूँजी मिलेगी.. जिससे वह विकास करेंगी..। हम यह नहीं पूछेंगे कि जब नगर ही बिक गए तो किसका विकास होगा..? अर्जित पूँजी का मालिक कौन होगा ? हमारे चुने हुए शासन का क्या औचित्य रह जाएगा..? *सवालों का बाँझ होना अंतत हमसे हमारा मानवीय बोध छीन लेता है ।*
संभवतः उक्त उदाहरण में अतिरंजना लग रही हो ..लेकिन आपके-हमारे आस पास हमारा यह सब कुछ बिक रहा है, बिक चुका है – हमारी निजता, हमारी सोच, हमारा ‘हम’ होना ..। स्थूल रूप में कभी स्वच्छता की आड़ में तो कभी स्मार्ट सिटी नाम पर -हमारे गाँव, क़स्बे, नगर, राजधानियाँ, अब हमारे नहीं रह गए हैं ..।
कुछ लोग इसे विशुद्ध राजनीति चश्मे से देख-पढ़ रहे होंगे.। वे इसे किसी पार्टी-विशेष का विरोध या समर्थन बता सकते हैं..। यह उनकी अपनी कुशलता या अयोग्यता हो सकती है । लेकिन आसन्न-ख़तरों से अनजान रहने से बेहतर है, पक्षपात के आरोपो को सह लेना..।
मैं जानता हूँ मेरी क़लम की अदनी सी आवाज़ का आज के उन्मादी शोर में सुना जाना क़तई सम्भव नहीं है । ..किंतु घोंसलों वाले पेड़ उजड जाने पर परिंदो की सी फ़ड़फड़ाहट लिए मुझे अपना दर्द तो कहना ही होगा…। हवा में तैरने वाले परिंदे शिकारी की जद में रहते हुए भी अपनी चहचाहाट नहीं भूलते .।*कभी-कभी, छोटी-छोटी आवाज़ें भी बहरे कानों तक पहुँच जाती हैं..। वरना समय तो अपना रास्ता खोज ही लेता है ..पानी के बहाव सा पत्थरों को काटता हुआ..।

*रास बिहारी गौड़*

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